Thursday, December 8, 2011

कोलावेरी हिंसा का चढ़ता ग्राफ

यूट्यूब की कृपा से इन दिनों एक गाना तमाम लोगों, खासकर युवाओं की जुबां पर चढ़ा हुआ है, ‘व्हाय दिस कोलावेरी डी?’ सुनते हैं टूटी-फूटी तमिल मिश्रित अंग्रेजी का यह गाना प्यार में निराश शराब के नशे में बहकते आम युवा की पुकार है, जो प्रेमिका से पूछ रहा है : इतना गुस्सा क्यों? अभागा नशेड़ी प्रेमी रालेगणसिद्धी जाकर यह गाता तो शायद उसे खंभे से बांधकर पीटा जाता और हरियाणा में प्रेम का सरेआम इजहार उसे खाप पंचायतों के गुस्सैल मंच पर ला खड़ा करता, क्योंकि जहां तक गुस्से की बात है, वह भारत में रूठे प्रेमियों तक ही सीमित नहीं, तमाम आयु और आय वर्गों की नाक की नोंक पर भी रखा रहता है। मुद्दा कोई भी हो, तकरार हुई नहीं कि मारपीट शुरू हो जाती है। नाराज नागरिक नेताओं पर जूते-चप्पल फेंकने या थप्पड़ मारने पर उतारू दिखते हैं तो सड़कों पर हर कहीं से ‘रोड रेज’ की खबरें मिल रही हैं। खबरें ही नहीं, सरकारी आंकड़े भी बयां रहे हैं कि हर कहीं ‘कोलावेरी हिंसा’ का चढ़ता ग्राफ लोगों को हल्ला बोल मुद्रा में ला रहा है। निरीह औरतों, बच्चों तथा बूढ़ों के खिलाफ तो विशेष तौर से, जो पलटवार करने में असमर्थ हैं। 

नागरिकों के गुस्से पर ठंडे छींटे डालने और तटस्थता और शांति की अपील करने की उम्मीद हम किससे करें? पहले सहज जवाब होता था, गांधीवादियों या घट-घटव्यापी मीडिया से, पर इन दिनों गांधीवाद के उपासक भी नापसंद व्यवस्था के प्रतिनिधियों के खिलाफ गुस्से और मारपीट को सही ठहराने लगे हैं और मीडिया इन हिंसक छवियों और बयानों को दिनभर भुनाता हुआ हिंसा करने वालों को राज-समाज में एक तरह की सांस्कृतिक स्वीकृति और शोहरत दिला रहा है। लगता है यह लगभग मान लिया गया है कि आज जो कुछ व्यवस्था सम्मत है, वह कुचलने लायक है और उसके खिलाफ हिंसक तोडफ़ोड़ निंदनीय हरकत नहीं, जनता का लोकतांत्रिक हक और सराहनीय तेवर है। दरअसल अक्रोध और अहिंसा के विचार उतने इकहरे नहीं हैं, जितना गांधी के शब्दों को एक किस्म का धार्मिक दर्जा दे चुकेलोग मान बैठे हैं। उनका सतही गांधीवाद कुछ-कुछ परशुराम की धर्म की समझ सरीखा है, जिसके तहत पिता की आज्ञा होते ही बिना जवाबदेही का इंतजार किए फरसा उठाकर बेबुनियाद शक की शिकार मां का सिर काट लाना आदर्श वारिस होना है। 

एक वरिष्ठ और बीमार नेता पर हमले की खबर सुनकर भरी सभा में हमारे एक आदरणीय गांधीवादी की प्रतिक्रिया थी : सिर्फ एक ही थप्पड़? और अंधभक्त श्रोता ठठाकर हंस पड़े। क्या ऐसी गैरजिम्मेदाराना फब्ती कसने वाले सिंगुर के किसानों के खिलाफ मारपीट की पैरोकारी करने या बाबरी गिरने पर हर्ष जताने वालों से बहुत फर्क ठहरते हैं? इतिहास गवाह है कि अपने पक्ष को जिताने के लिए किसी भी ‘वाद’ की निजी व्याख्या करके (वह गांधीवाद हो, नक्सलवाद या माक्र्सवाद) उसे धर्म का दर्जा देकर फौरी जुनून पैदा कर देना बड़ा आसान है। लेकिन अंतत: यह खेल बहुत खतरनाक साबित होता है। नेता पर अंधभक्ति रखने वाले सामान्य बुद्धि के अनुयायियों के लिए कुछ विचार तो तर्क के परे एक अवध्य गाय बन जाते हैं और उनकी परिधि के बाहर का सबकुछ अपावन, क्षुद्र और ताडऩा का सहज अधिकारी है। इस तरह की इकहरी समझ और वैचारिक जिद ने ही महाभारत से लेकर कलिंग और बंगाल से लेकर भारत-पाक विभाजन तक उन भीषण गृहयुद्धों को पैदा किया है, जिन्होंने सभ्यता को शर्मसार किया है। उत्तेजना के क्षण बीतने पर उस पाशवी युद्ध का कोई गांधी या व्यास सरीखा द्रष्टा या युधिष्ठिर या अशोक सरीखा विजेता साफ कह उठता है कि ऐसी जीत अर्थहीन है और विनाशकारी युद्ध के पीछे सत्य-असत्य का टकराव नहीं, दो अहंवादी धड़ों की मान्यताओं की स्वार्थी टकराहट ही थी। अंत में जो हाथ लगा, वह है खंडहर, सर धुनते नागरिक और पछतावा। हर ईमानदार महानायक इसीलिए कथित विजय की घड़ी में खुशी मनाने के बजाय घोर आत्मघृणा में डूब जाता है। 

पूछा जा सकता है कि तब क्या वजह है कि औपचारिक इतिहास और नेता खमठोंक युद्ध छेडऩे वालों के नाम पर फूल फेंकने में इतनी रुचि लेते हैं? पहली वजह यह कि इतिहास लेखन अक्सर राजकीय रुचि से होता आया है और इसलिए वह युद्ध को जायज ठहराता है। दूसरे, लोगबाग अक्सर कटु सच्चाई की अपेक्षा मनोरंजक अर्धसत्य अधिक पसंद करते हैं, लिहाजा टीकाकार हों या मीडिया या पदलोलुप नेता, सभी अधिकतर नाटकीय उत्तेजना से भरपूर विवरणों को ही केंद्र में रखकर अपने भाषणों और ग्रंथों को लोकप्रिय बनाते हैं। सच्ची नैतिक दुविधा की बात करने वाले विदुर, गृहयुद्ध के विरोध में वन चले गए बलराम और सच्चे पछतावे से मथे जाने पर खुद को दोषी कहकर वैराग्य धारण करने वाले सत्यवादी युधिष्ठिर के बजाय आम लोग धनुर्धारी अर्जुन, उग्रतेजा कर्ण, गदाधारी भीम और जुझारू द्रोण के उग्र विद्रोह और गुस्से को अधिक सराहना भाव से याद रखते हैं। हमारे नेतागण कुछ देर को अपनी बात मनवाने और चुनावी आग्रहों से मुक्त होकर तटस्थता से महाभारत का अंत पढें़ तो शायद वह उनको कई बातें नई तरह से सोचने को विवश करे। 

युद्ध के बाद जीता हुआ राज्य त्यागकर पांडवों का वैराग्य धारण करना और मृत भाइयों का तर्पण करने के बाद हिमालय को प्रस्थान करना कोई यूनानी तर्ज की त्रासदी नहीं, वह अपनी अमर्यादित हिंसक कथनी और करनी पर शर्म और भाइयों के खून से भीगी धरती पर राज करने की गहरी अनिच्छा अनुभव करने की ईमानदार घड़ी है, जिससे गुजरना कालातीत मर्यादाओं का महत्व व क्रोध (अमर्ष भाव) की निस्सारता पहचानना है। वेदव्यास और कृष्ण शाश्वत मूल्यों को लेकर शांत प्रकृति युधिष्ठिर को सदैव उनके गुस्सैल भाइयों से ऊपर मानते हैं। इसीलिए यक्षप्रश्नों की झड़ी लगाकर धर्म युधिष्ठिर से जीवन का केंद्रीय सत्य कहलवाता है और उचितानुचित विचार कर तटस्थता से महाभारत को देखने-समझाने लायक प्रायदृष्टि का वर भी कृष्ण अपने परम सखा अर्जुन को नहीं, अक्रोधी युधिष्ठिर को ही देते हैं।

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