Saturday, December 24, 2011

आज छत्तीसगढ़ के जन्मदाता का जन्मदिन


अटल बिहारी वाजपेयी - एक परिचय 
अटल बिहारी वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी

बात 1957 की है. दूसरी लोकसभा में भारतीय जन संघ के सिर्फ़ चार सांसद थे. इन सासंदों का परिचय तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन से कराया गया.

तब राष्ट्रपति ने हैरानी व्यक्त करते हुए कहा कि वो किसी भारतीय जन संघ नाम की पार्टी को नहीं जानते. अटल बिहारी वाजपेयी उन चार सांसदों में से एक थे.

वो इस घटना को याद करते हुए कहते हैं कि आज भारतीय जनता पार्टी के सबसे ज़्यादा सांसद हैं और शायद ही ऐसा कोई होगा जिसने बीजेपी का नाम न सुना हो.

शायद यह बात सच हो. लेकिन यह भी सच है कि भारतीय जन संघ से भारतीय जनता पार्टी और सांसद से देश के प्रधानमंत्री तक के सफ़र में अटल बिहारी वाजपेयी ने कई पड़ाव तय किए हैं.

नेहरु-गांधी परिवार के प्रधानमंत्रियों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी का नाम भारत के इतिहास में उन चुनिंदा नेताओँ में शामिल होगा जिन्होंने सिर्फ़ अपने नाम, व्यक्तित्व और करिश्मे के बूते पर सरकार बनाई.

पत्रकारिता

एक स्कूल टीचर के घर में पैदा हुए वाजपेयी के लिए शुरुआती सफ़र ज़रा भी आसान न था. 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के एक निम्न मध्यमवर्ग परिवार में जन्मे वाजपेयी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के ही विक्टोरिया ( अब लक्ष्मीबाई ) कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज में हुई.

उन्होंने राजनीतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर किया और पत्रकारिता में अपना करियर शुरु किया. उन्होंने राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन का संपादन किया.

जन संघ और बीजेपी

1951 में वो भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य थे. अपनी कुशल वक्तृत्व शैली से राजनीति के शुरुआती दिनों में ही उन्होंने रंग जमा दिया. वैसे लखनऊ में एक लोकसभा उप चुनाव में वो हार गए थे. 1957 में जन संघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया. लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वो दूसरी लोकसभा में पहुंचे. अगले पाँच दशकों के उनके संसदीय करियर की यह शुरुआत थी.

1968 से 1973 तक वो भारतीय जन संघ के अध्यक्ष रहे. विपक्षी पार्टियों के अपने दूसरे साथियों की तरह उन्हें भी आपातकाल के दौरान जेल भेजा गया.

1977 में जनता पार्टी सरकार में उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया. इस दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया और वो इसे अपने जीवन का अब तक का सबसे सुखद क्षण बताते हैं. 1980 में वो बीजेपी के संस्थापक सदस्य रहे. 1980 से 1986 तक वो बीजेपी के अध्यक्ष रहे और इस दौरान वो बीजेपी संसदीय दल के नेता भी रहे.

सांसद से प्रधानमंत्री

अटल बिहारी वाजपेयी अब तक नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए हैं. दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक. बीच में कुछ लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति रही. ख़ासतौर से 1984 में जब वो ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के हाथों पराजित हो गए थे.

1962 से 1967 और 1986 में वो राज्यसभा के सदस्य भी रहे.

16 मई 1996 को वो पहली बार प्रधानमंत्री बने. लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा. इसके बाद 1998 तक वो लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे.

1998 के आमचुनावों में सहयोगी पार्टियों के साथ उन्होंने लोकसभा में अपने गठबंधन का बहुमत सिद्ध किया और इस तरह एक बार फिर प्रधानमंत्री बने. लेकिन एआईएडीएमके द्वारा गठबंधन से समर्थन वापस ले लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई और एक बार फिर आम चुनाव हुए.

1999 में हुए चुनाव राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साझा घोषणापत्र पर लड़े गए और इन चुनावों में वाजपेयी के नेतृत्व को एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया. गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और वाजपेयी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली.

Sunday, December 11, 2011

चाय की दुकान पर सेंसर कैसे लगाएंगे?

प्रवक्ता खुद की जबान नहीं बोलते। वे अपने स्वामी की आवाज होते हैं या फिर लंबे समय तक आवाज नहीं रह पाते। इसी तरह, मंत्री भी अपने मुखिया के अप्रत्यक्ष अनुमोदन के बगैर नाटकीय या प्रबल नीतिगत बदलाव का प्रस्ताव नहीं रखते। यही सामान्य रीति है। वर्तमान में इंटरनेट पर संवाद के सबसे असरदार तंत्र, सोशल मीडिया पर प्रस्तावित सेंसरशिप के लिए कपिल सिब्बल अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। 

सेंसर आमतौर पर भ्रांतिग्रस्त सरकारों के लिए आखिरी प्रलोभन होता है, जो इस भ्रम के सहारे खुद को सांत्वना देना चाहती हैं कि उनकी गलतियां बेअसर और बेईमान शासन की बजाय बस मानहानि की कोशिशें हैं। बेशक, सेंसर के लिए बहाना हमेशा राष्ट्रहित ही होता है। आपातकाल के दौरान सरकार ने इन कानाफूसियों को हवा दी कि उसके सामने घुटने न टेकने वाले पत्रकारों को सीआईए ने खरीद लिया है। अब सोवियत संघ के साथ केजीबी भी दफ्न हो गई है और सीआईए कुछ-कुछ मित्रपक्ष जैसा हो गया है, ऐसी फुसलाहटें गई नहीं हैं। इन दिनों, जब आप पार्टी लीडरों की संतनुमा छवि ढहाने वाले कार्टूनों को मिटाना चाहते हैं, तो कारण बन जाती है सांप्रदायिकता। यह तनाव का माकूल पल है। भारतीय मीडिया शायद ही कभी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। जब यूरोप स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के पैगंबर की अभद्र छवियां छापने में व्यस्त था, तब भारतीय मीडिया जानता था कि स्वतंत्रता, गैरजिम्मेदारी का बहाना नहीं है। 

दिल्ली के क्षणभंगुर शासक अगर अधिक बुद्धिमान नहीं, तो ज्यादा सयाने तो बन ही चुके हैं। वे सोचते हैं कि ‘सरोगेट सेंसरशिप’ के साथ एक बार में मीडिया की एक बांह मरोड़कर वे बच निकल सकते हैं- अक्सर सीधे कार्यकारी अधिकारी की बदौलत या अहंकार को बढ़ावा देने के ज्यादा स्वीकार्य समाधान या फिर बैंक बैलेंस में उदारता के जरिए। आलोचना को शांत करने के लिए व्यक्गित तौर पर पत्रकारों पर तहकीकात करने वाली संस्थाओं के माध्यम से दबाव डाला जाता है। मीडिया के मालिक अपनी गर्दन पर सत्ता-शक्ति का ठंडा हाथ महसूस करते हैं और कई बार पिछवाड़े पर चपत के रूप में ढके-छुपे ढंग से भी। यहां भरोसेमंद बने रहने के इनाम भी होते हैं, जो तुच्छ चीजों से लेकर भौतिक लाभों के रूप में मिलते हैं। हालांकि भुनाने के लिए जरूरी पुरस्कार पॉइंट बढ़ते ही जा रहे हैं। मीडिया मैनेजर और लिक्खाड़ यह जानते हैं। जो गर्मी में नहीं टिक पाते, वे रसोईघर से बाहर हो जाते हैं और सीधे चलकर राजनेताओं के ड्राइंगरूम के वातानुकूलित आराम में पहुंच जाते हैं। पत्रकार धर्म का निर्वाह करने वाले अन्य लोग असुविधा और कष्ट को लेकर न बखेड़ा खड़ा करते हैं न ही पलायन करते हैं। 

जब माहौल शांतिपूर्ण हो, तब भी मंत्री धौंस जमाने के आदी हो सकते हैं। और जब मौसम अशांत हो जाता है, तो वे युद्ध की मानसिकता में पहुंच जाते हैं। व्यापक तौर पर विदेशी भूमि पर लड़ा गया युद्ध हारने वाले एकमात्र अमेरिकी सेनापति विलियम वेस्टमोरलैंड ने यह सफाई देते हुए खुद को सांत्वना दी थी कि आधुनिक युग में वियतनाम युद्ध पहला युद्ध था, जो बगैर सेंसरशिप के लड़ा गया। उन्होंने वॉशिंगटन पोस्ट से कहा कि ‘सेंसरशिप के बगैर चीजें जनता के दिमाग में भयंकर भ्रम पैदा कर सकती हैं।’ यही बात शक्तिसंपन्न लोगों को सबसे ज्यादा चिंतित करती है कि लोग सच के जरिए ‘भ्रमित’ किए जा सकते हैं। वे तमाम बहस, सवाल और तर्कसंगत जिम्मेदारियों को मिटा देना चाहते हैं, क्योंकि कुर्सी के लिए उनके लालच की कोई सीमा नहीं होती। वे दूरदर्शन और आकाशवाणी की तरह अपने नियंत्रण वाले मीडिया की साफ-सफाई और काट-छांट करते हैं और इस तरह उसकी साख को पुंसत्वहीन कर डालते हैं। इसके बाद कैंचियां उस मीडिया के लिए सामने आती हैं, जिसे वे नियंत्रित नहीं करते। 

यदि इंटरनेट पर सेंसरशिप सांकेतिक से ज्यादा कुछ नहीं होती (मसलन सर्वर बंद करना), तो ऐसा पहले से ही हो चुका होता। हालांकि, किसी लोकतांत्रिक सरकार के पास मुअम्मर गद्दाफी, हफीज असद या चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ढकी-छुपी जबरदस्ती के जैसे निरंकुश अधिकार नहीं होते। कृत्रिम तर्क दिए ही गए होंगे। परंतु भारत सरकार को जल्दी ही पता चलेगा कि निजी संचार क्षेत्र के उसके कुछ सहयोगियों के मुकाबले इंटरनेट आसानी से नहीं झुकता। सोशल मीडिया का चमत्कार व्यक्तिगत आवाज और श्रोता जनसमूह के इसके अद्वितीय मेल में है। यह करोड़ों लोगों के बीच बातचीत है। आप चाय की दुकान पर सेंसर कैसे लगा सकते हैं। 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी विपक्ष को जेल में ठूंस सकीं और खाली जगह के जरिए मुखपृष्ठों पर छाप भी छोड़ सकीं, लेकिन वे चाय की हर दुकान पर ताला नहीं जड़ सकीं। सोशल मीडिया मानव इतिहास में चाय की सबसे बड़ी दुकान है। 

यहां पर महत्वपूर्ण प्रश्न बचा रह जाता है : सिब्बल तो प्रवक्ता हैं, मालिक कौन है? पता नहीं क्यों, पर डॉ. मनमोहन सिंह का नाम जवाब जैसा नहीं लगता। वे किसी इमोटीकॉन को नहीं पहचान पाएंगे। 

एक पैटर्न देखा जा सकता है। कांग्रेस अपनी सारी कोशिशें उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों पर केंद्रित कर रही है। कांग्रेस की किस्मत सुधारने के लिए गंभीर राजनीतिक निर्णय लिए जा रहे हैं। राहुल गांधी जानते हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने अपने सत्ता-विरोधी संदेश के प्रसार के लिए सोशल मीडिया का शानदार इस्तेमाल किया है। हजारे, प्रस्तावित लोकपाल कानून को कमजोर करने के लिए सार्वजनिक तौर पर राहुल गांधी को दोषी ठहरा चुके हैं। हजारे के मामले में सरकार कुछ नहीं कर सकती। क्या यह हजारे का संदेश ले जाने वाले इंटरनेट पर सेंसर लगाने की कोशिश कर रही है? 

यदि कपिल सिब्बल के विचार के पीछे यही तर्कसंगत वजह है, तो फिर यहां पर ब्रेकिंग न्यूज है। वास्तविकता में आइए। चाय की इस दुकान में कोई दीवार नहीं है। 

Thursday, December 8, 2011

संवेदना के पते पर आत्मीयता की पाती

नया बैंक खाता खुलवाने के लिए वोटर आईडी, मार्कशीट समेत अन्य दस्तावेज तलाश रहा था, तभी अचानक एक काफी पुराने कागज पर नजर पड़ी। गौर से देखा तो पाया करीब बीस बरस पुरानी एक चि_ी है, जो मौसी ने भेजी थी। पढ़ते-पढ़ते पुरानी यादों में खो गया। 

बात बाईस बरस पुरानी है। पिताजी नौकरी की तलाश में मंडीदीप चले आए थे। मम्मी और छोटा भाई भी उनके साथ ही आ गए थे। मैं दादा-दादी के साथ गांव में ही रह गया था। सालभर बाद मैं भी मंडीदीप आ गया। मेरी मौसी मुझे यहां लाई थीं। तब मैं चौथी क्लास में पढ़ता था। गांव से यहां आने के बाद दादाजी और अन्य रिश्तेदारों का हाल-चाल जानने, कुशलक्षेम पूछने का एक ही जरिया होता था - चि_ी। 

मोबाइल तो तब होते नहीं थे, टेलीफोन भी आम नहीं थे। मां बोलतीं और मैं बड़े ध्यान से चि_ी लिखता था, ताकि कोई गलती न हो जाए। चि_ी लिखने का एक खास तरीका होता था। जैसे सबसे पहले बड़ों को चरण स्पर्श, प्रणाम, फिर ‘आगे हाल मालूम होवै’ जैसे जुमलों से अपनी बात कहना, अपने हाल बताना, फिर उनके हाल जानना। अंत में छोटों को ढेर सारा प्यार लिखना होता था। चि_ी लिखने में भी कोई कम समय नहीं लगता था, पूरे दो घंटे चाहिए होते थे। लिखने के बाद लाल डिब्बे में डालने के साथ ही शुरू हो जाता था डाकिये का बेसब्री से इंतजार। खाकी वर्दी में सजा-धजा डाकिया, पोस्टमैन बाबू, डाक वाले भैया... जाने कितने नाम, पर काम सिर्फ एक पैगाम पहुंचाना, संदेश देना। घर के बाहर जब भी साइकिल की घंटी की ट्रिन-ट्रिन सुनाई दे या दरवाजे की कुंडी बजे, यही लगता कि चि_ी आ गई। सच पूछा जाए तो डाकिया बाबू के भी बड़े भाव हुआ करते थे, क्योंकि सुख-दुख की खबरों के खजाने की चाबी उसी के तो पास हुआ करती थी। जब कभी चीठी  आ जाए और डाकिया नाम लेकर कहे कि फलां बाबू, तुम्हारी चि_ी आई है तो हम मारे खुशी के आसमान सिर पर उठा लिया करते थे। एक खुशी चि_ी मिलने की और दूसरी डाकिया बाबू द्वारा नाम लेकर बुलाने की।चीठी को कमीज की जेब में रखकर हम कुछ इस तरह अकड़कर चलते मानो पूरे मोहल्ले में सिर्फ हमारी हीचीठी आई हो। घर जाकर बड़ी उत्सुकता से चि_ी खोलकर देखते कि किसने क्या लिखा है। सबसे पहले तो यही पढ़ते किचीठी में हमारे बारे में क्या लिखा गया है। जब भी कोई चीठी आती, उसे कई दिनों तक बड़ी हिफाजत से संभालकर रखते थे। 

यह सब सोच ही रहा था कि मम्मी ने आकर टोका : इस पुराने कागज को पढ़ते-पढ़ते कहां खो गए हो? मम्मी को बताया मौसी की पुरानी चि_ी है। पढ़कर लगता है समय कैसे तेजी से पंख लगाकर उड़ जाता है। कल तक जिस डाकिया बाबू की खूब पूछपरख और आवभगत हुआ करती थी, उसे आज कोई पूछने वाला भी नहीं बचा। कोई चि_ी भी नहीं लिखता। संचार क्रांति के साधनों ने चि_ी और डाकिये को गुजरे जमाने की चीज बना दिया। उन साधनों को प्रणाम, जिन्होंने दुनिया को समेटकर एक वैश्विक समुदाय बना दिया है, किंतु चि_ियों में जो निजता का संस्पर्श होता था, आत्मीयता की जो भीनी गंध होती थी, और जो एक विशिष्ट देशज स्थानिकता होती थी, उसकी तुलना इनसे नहीं की जा सकती। अतीत का एक मोह होता है और अतीत का रोमान भी होता है। यह ऐतिहासिक प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है कि समय के साथ कुछ चीजें हाशिये पर चली जाती हैं और कुछ चीजें केंद्रीयता ग्रहण कर लेती हैं। लेकिन चि_ियों जैसी अब लगभग भूली-बिसरी हो चुकी चीजों को याद करने का एक अर्थ यह भी है कि हम अपने भीतर की संवेदनशीलता की नमी को जुगाए और बचाए रखें। चि_ियों की याद हमारी संवेदना के पते पर एक आत्मीय पाती है। 

कोलावेरी हिंसा का चढ़ता ग्राफ

यूट्यूब की कृपा से इन दिनों एक गाना तमाम लोगों, खासकर युवाओं की जुबां पर चढ़ा हुआ है, ‘व्हाय दिस कोलावेरी डी?’ सुनते हैं टूटी-फूटी तमिल मिश्रित अंग्रेजी का यह गाना प्यार में निराश शराब के नशे में बहकते आम युवा की पुकार है, जो प्रेमिका से पूछ रहा है : इतना गुस्सा क्यों? अभागा नशेड़ी प्रेमी रालेगणसिद्धी जाकर यह गाता तो शायद उसे खंभे से बांधकर पीटा जाता और हरियाणा में प्रेम का सरेआम इजहार उसे खाप पंचायतों के गुस्सैल मंच पर ला खड़ा करता, क्योंकि जहां तक गुस्से की बात है, वह भारत में रूठे प्रेमियों तक ही सीमित नहीं, तमाम आयु और आय वर्गों की नाक की नोंक पर भी रखा रहता है। मुद्दा कोई भी हो, तकरार हुई नहीं कि मारपीट शुरू हो जाती है। नाराज नागरिक नेताओं पर जूते-चप्पल फेंकने या थप्पड़ मारने पर उतारू दिखते हैं तो सड़कों पर हर कहीं से ‘रोड रेज’ की खबरें मिल रही हैं। खबरें ही नहीं, सरकारी आंकड़े भी बयां रहे हैं कि हर कहीं ‘कोलावेरी हिंसा’ का चढ़ता ग्राफ लोगों को हल्ला बोल मुद्रा में ला रहा है। निरीह औरतों, बच्चों तथा बूढ़ों के खिलाफ तो विशेष तौर से, जो पलटवार करने में असमर्थ हैं। 

नागरिकों के गुस्से पर ठंडे छींटे डालने और तटस्थता और शांति की अपील करने की उम्मीद हम किससे करें? पहले सहज जवाब होता था, गांधीवादियों या घट-घटव्यापी मीडिया से, पर इन दिनों गांधीवाद के उपासक भी नापसंद व्यवस्था के प्रतिनिधियों के खिलाफ गुस्से और मारपीट को सही ठहराने लगे हैं और मीडिया इन हिंसक छवियों और बयानों को दिनभर भुनाता हुआ हिंसा करने वालों को राज-समाज में एक तरह की सांस्कृतिक स्वीकृति और शोहरत दिला रहा है। लगता है यह लगभग मान लिया गया है कि आज जो कुछ व्यवस्था सम्मत है, वह कुचलने लायक है और उसके खिलाफ हिंसक तोडफ़ोड़ निंदनीय हरकत नहीं, जनता का लोकतांत्रिक हक और सराहनीय तेवर है। दरअसल अक्रोध और अहिंसा के विचार उतने इकहरे नहीं हैं, जितना गांधी के शब्दों को एक किस्म का धार्मिक दर्जा दे चुकेलोग मान बैठे हैं। उनका सतही गांधीवाद कुछ-कुछ परशुराम की धर्म की समझ सरीखा है, जिसके तहत पिता की आज्ञा होते ही बिना जवाबदेही का इंतजार किए फरसा उठाकर बेबुनियाद शक की शिकार मां का सिर काट लाना आदर्श वारिस होना है। 

एक वरिष्ठ और बीमार नेता पर हमले की खबर सुनकर भरी सभा में हमारे एक आदरणीय गांधीवादी की प्रतिक्रिया थी : सिर्फ एक ही थप्पड़? और अंधभक्त श्रोता ठठाकर हंस पड़े। क्या ऐसी गैरजिम्मेदाराना फब्ती कसने वाले सिंगुर के किसानों के खिलाफ मारपीट की पैरोकारी करने या बाबरी गिरने पर हर्ष जताने वालों से बहुत फर्क ठहरते हैं? इतिहास गवाह है कि अपने पक्ष को जिताने के लिए किसी भी ‘वाद’ की निजी व्याख्या करके (वह गांधीवाद हो, नक्सलवाद या माक्र्सवाद) उसे धर्म का दर्जा देकर फौरी जुनून पैदा कर देना बड़ा आसान है। लेकिन अंतत: यह खेल बहुत खतरनाक साबित होता है। नेता पर अंधभक्ति रखने वाले सामान्य बुद्धि के अनुयायियों के लिए कुछ विचार तो तर्क के परे एक अवध्य गाय बन जाते हैं और उनकी परिधि के बाहर का सबकुछ अपावन, क्षुद्र और ताडऩा का सहज अधिकारी है। इस तरह की इकहरी समझ और वैचारिक जिद ने ही महाभारत से लेकर कलिंग और बंगाल से लेकर भारत-पाक विभाजन तक उन भीषण गृहयुद्धों को पैदा किया है, जिन्होंने सभ्यता को शर्मसार किया है। उत्तेजना के क्षण बीतने पर उस पाशवी युद्ध का कोई गांधी या व्यास सरीखा द्रष्टा या युधिष्ठिर या अशोक सरीखा विजेता साफ कह उठता है कि ऐसी जीत अर्थहीन है और विनाशकारी युद्ध के पीछे सत्य-असत्य का टकराव नहीं, दो अहंवादी धड़ों की मान्यताओं की स्वार्थी टकराहट ही थी। अंत में जो हाथ लगा, वह है खंडहर, सर धुनते नागरिक और पछतावा। हर ईमानदार महानायक इसीलिए कथित विजय की घड़ी में खुशी मनाने के बजाय घोर आत्मघृणा में डूब जाता है। 

पूछा जा सकता है कि तब क्या वजह है कि औपचारिक इतिहास और नेता खमठोंक युद्ध छेडऩे वालों के नाम पर फूल फेंकने में इतनी रुचि लेते हैं? पहली वजह यह कि इतिहास लेखन अक्सर राजकीय रुचि से होता आया है और इसलिए वह युद्ध को जायज ठहराता है। दूसरे, लोगबाग अक्सर कटु सच्चाई की अपेक्षा मनोरंजक अर्धसत्य अधिक पसंद करते हैं, लिहाजा टीकाकार हों या मीडिया या पदलोलुप नेता, सभी अधिकतर नाटकीय उत्तेजना से भरपूर विवरणों को ही केंद्र में रखकर अपने भाषणों और ग्रंथों को लोकप्रिय बनाते हैं। सच्ची नैतिक दुविधा की बात करने वाले विदुर, गृहयुद्ध के विरोध में वन चले गए बलराम और सच्चे पछतावे से मथे जाने पर खुद को दोषी कहकर वैराग्य धारण करने वाले सत्यवादी युधिष्ठिर के बजाय आम लोग धनुर्धारी अर्जुन, उग्रतेजा कर्ण, गदाधारी भीम और जुझारू द्रोण के उग्र विद्रोह और गुस्से को अधिक सराहना भाव से याद रखते हैं। हमारे नेतागण कुछ देर को अपनी बात मनवाने और चुनावी आग्रहों से मुक्त होकर तटस्थता से महाभारत का अंत पढें़ तो शायद वह उनको कई बातें नई तरह से सोचने को विवश करे। 

युद्ध के बाद जीता हुआ राज्य त्यागकर पांडवों का वैराग्य धारण करना और मृत भाइयों का तर्पण करने के बाद हिमालय को प्रस्थान करना कोई यूनानी तर्ज की त्रासदी नहीं, वह अपनी अमर्यादित हिंसक कथनी और करनी पर शर्म और भाइयों के खून से भीगी धरती पर राज करने की गहरी अनिच्छा अनुभव करने की ईमानदार घड़ी है, जिससे गुजरना कालातीत मर्यादाओं का महत्व व क्रोध (अमर्ष भाव) की निस्सारता पहचानना है। वेदव्यास और कृष्ण शाश्वत मूल्यों को लेकर शांत प्रकृति युधिष्ठिर को सदैव उनके गुस्सैल भाइयों से ऊपर मानते हैं। इसीलिए यक्षप्रश्नों की झड़ी लगाकर धर्म युधिष्ठिर से जीवन का केंद्रीय सत्य कहलवाता है और उचितानुचित विचार कर तटस्थता से महाभारत को देखने-समझाने लायक प्रायदृष्टि का वर भी कृष्ण अपने परम सखा अर्जुन को नहीं, अक्रोधी युधिष्ठिर को ही देते हैं।