Sunday, December 11, 2011

चाय की दुकान पर सेंसर कैसे लगाएंगे?

प्रवक्ता खुद की जबान नहीं बोलते। वे अपने स्वामी की आवाज होते हैं या फिर लंबे समय तक आवाज नहीं रह पाते। इसी तरह, मंत्री भी अपने मुखिया के अप्रत्यक्ष अनुमोदन के बगैर नाटकीय या प्रबल नीतिगत बदलाव का प्रस्ताव नहीं रखते। यही सामान्य रीति है। वर्तमान में इंटरनेट पर संवाद के सबसे असरदार तंत्र, सोशल मीडिया पर प्रस्तावित सेंसरशिप के लिए कपिल सिब्बल अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। 

सेंसर आमतौर पर भ्रांतिग्रस्त सरकारों के लिए आखिरी प्रलोभन होता है, जो इस भ्रम के सहारे खुद को सांत्वना देना चाहती हैं कि उनकी गलतियां बेअसर और बेईमान शासन की बजाय बस मानहानि की कोशिशें हैं। बेशक, सेंसर के लिए बहाना हमेशा राष्ट्रहित ही होता है। आपातकाल के दौरान सरकार ने इन कानाफूसियों को हवा दी कि उसके सामने घुटने न टेकने वाले पत्रकारों को सीआईए ने खरीद लिया है। अब सोवियत संघ के साथ केजीबी भी दफ्न हो गई है और सीआईए कुछ-कुछ मित्रपक्ष जैसा हो गया है, ऐसी फुसलाहटें गई नहीं हैं। इन दिनों, जब आप पार्टी लीडरों की संतनुमा छवि ढहाने वाले कार्टूनों को मिटाना चाहते हैं, तो कारण बन जाती है सांप्रदायिकता। यह तनाव का माकूल पल है। भारतीय मीडिया शायद ही कभी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। जब यूरोप स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के पैगंबर की अभद्र छवियां छापने में व्यस्त था, तब भारतीय मीडिया जानता था कि स्वतंत्रता, गैरजिम्मेदारी का बहाना नहीं है। 

दिल्ली के क्षणभंगुर शासक अगर अधिक बुद्धिमान नहीं, तो ज्यादा सयाने तो बन ही चुके हैं। वे सोचते हैं कि ‘सरोगेट सेंसरशिप’ के साथ एक बार में मीडिया की एक बांह मरोड़कर वे बच निकल सकते हैं- अक्सर सीधे कार्यकारी अधिकारी की बदौलत या अहंकार को बढ़ावा देने के ज्यादा स्वीकार्य समाधान या फिर बैंक बैलेंस में उदारता के जरिए। आलोचना को शांत करने के लिए व्यक्गित तौर पर पत्रकारों पर तहकीकात करने वाली संस्थाओं के माध्यम से दबाव डाला जाता है। मीडिया के मालिक अपनी गर्दन पर सत्ता-शक्ति का ठंडा हाथ महसूस करते हैं और कई बार पिछवाड़े पर चपत के रूप में ढके-छुपे ढंग से भी। यहां भरोसेमंद बने रहने के इनाम भी होते हैं, जो तुच्छ चीजों से लेकर भौतिक लाभों के रूप में मिलते हैं। हालांकि भुनाने के लिए जरूरी पुरस्कार पॉइंट बढ़ते ही जा रहे हैं। मीडिया मैनेजर और लिक्खाड़ यह जानते हैं। जो गर्मी में नहीं टिक पाते, वे रसोईघर से बाहर हो जाते हैं और सीधे चलकर राजनेताओं के ड्राइंगरूम के वातानुकूलित आराम में पहुंच जाते हैं। पत्रकार धर्म का निर्वाह करने वाले अन्य लोग असुविधा और कष्ट को लेकर न बखेड़ा खड़ा करते हैं न ही पलायन करते हैं। 

जब माहौल शांतिपूर्ण हो, तब भी मंत्री धौंस जमाने के आदी हो सकते हैं। और जब मौसम अशांत हो जाता है, तो वे युद्ध की मानसिकता में पहुंच जाते हैं। व्यापक तौर पर विदेशी भूमि पर लड़ा गया युद्ध हारने वाले एकमात्र अमेरिकी सेनापति विलियम वेस्टमोरलैंड ने यह सफाई देते हुए खुद को सांत्वना दी थी कि आधुनिक युग में वियतनाम युद्ध पहला युद्ध था, जो बगैर सेंसरशिप के लड़ा गया। उन्होंने वॉशिंगटन पोस्ट से कहा कि ‘सेंसरशिप के बगैर चीजें जनता के दिमाग में भयंकर भ्रम पैदा कर सकती हैं।’ यही बात शक्तिसंपन्न लोगों को सबसे ज्यादा चिंतित करती है कि लोग सच के जरिए ‘भ्रमित’ किए जा सकते हैं। वे तमाम बहस, सवाल और तर्कसंगत जिम्मेदारियों को मिटा देना चाहते हैं, क्योंकि कुर्सी के लिए उनके लालच की कोई सीमा नहीं होती। वे दूरदर्शन और आकाशवाणी की तरह अपने नियंत्रण वाले मीडिया की साफ-सफाई और काट-छांट करते हैं और इस तरह उसकी साख को पुंसत्वहीन कर डालते हैं। इसके बाद कैंचियां उस मीडिया के लिए सामने आती हैं, जिसे वे नियंत्रित नहीं करते। 

यदि इंटरनेट पर सेंसरशिप सांकेतिक से ज्यादा कुछ नहीं होती (मसलन सर्वर बंद करना), तो ऐसा पहले से ही हो चुका होता। हालांकि, किसी लोकतांत्रिक सरकार के पास मुअम्मर गद्दाफी, हफीज असद या चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ढकी-छुपी जबरदस्ती के जैसे निरंकुश अधिकार नहीं होते। कृत्रिम तर्क दिए ही गए होंगे। परंतु भारत सरकार को जल्दी ही पता चलेगा कि निजी संचार क्षेत्र के उसके कुछ सहयोगियों के मुकाबले इंटरनेट आसानी से नहीं झुकता। सोशल मीडिया का चमत्कार व्यक्तिगत आवाज और श्रोता जनसमूह के इसके अद्वितीय मेल में है। यह करोड़ों लोगों के बीच बातचीत है। आप चाय की दुकान पर सेंसर कैसे लगा सकते हैं। 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी विपक्ष को जेल में ठूंस सकीं और खाली जगह के जरिए मुखपृष्ठों पर छाप भी छोड़ सकीं, लेकिन वे चाय की हर दुकान पर ताला नहीं जड़ सकीं। सोशल मीडिया मानव इतिहास में चाय की सबसे बड़ी दुकान है। 

यहां पर महत्वपूर्ण प्रश्न बचा रह जाता है : सिब्बल तो प्रवक्ता हैं, मालिक कौन है? पता नहीं क्यों, पर डॉ. मनमोहन सिंह का नाम जवाब जैसा नहीं लगता। वे किसी इमोटीकॉन को नहीं पहचान पाएंगे। 

एक पैटर्न देखा जा सकता है। कांग्रेस अपनी सारी कोशिशें उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों पर केंद्रित कर रही है। कांग्रेस की किस्मत सुधारने के लिए गंभीर राजनीतिक निर्णय लिए जा रहे हैं। राहुल गांधी जानते हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने अपने सत्ता-विरोधी संदेश के प्रसार के लिए सोशल मीडिया का शानदार इस्तेमाल किया है। हजारे, प्रस्तावित लोकपाल कानून को कमजोर करने के लिए सार्वजनिक तौर पर राहुल गांधी को दोषी ठहरा चुके हैं। हजारे के मामले में सरकार कुछ नहीं कर सकती। क्या यह हजारे का संदेश ले जाने वाले इंटरनेट पर सेंसर लगाने की कोशिश कर रही है? 

यदि कपिल सिब्बल के विचार के पीछे यही तर्कसंगत वजह है, तो फिर यहां पर ब्रेकिंग न्यूज है। वास्तविकता में आइए। चाय की इस दुकान में कोई दीवार नहीं है। 

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