Saturday, December 24, 2011

आज छत्तीसगढ़ के जन्मदाता का जन्मदिन


अटल बिहारी वाजपेयी - एक परिचय 
अटल बिहारी वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी

बात 1957 की है. दूसरी लोकसभा में भारतीय जन संघ के सिर्फ़ चार सांसद थे. इन सासंदों का परिचय तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन से कराया गया.

तब राष्ट्रपति ने हैरानी व्यक्त करते हुए कहा कि वो किसी भारतीय जन संघ नाम की पार्टी को नहीं जानते. अटल बिहारी वाजपेयी उन चार सांसदों में से एक थे.

वो इस घटना को याद करते हुए कहते हैं कि आज भारतीय जनता पार्टी के सबसे ज़्यादा सांसद हैं और शायद ही ऐसा कोई होगा जिसने बीजेपी का नाम न सुना हो.

शायद यह बात सच हो. लेकिन यह भी सच है कि भारतीय जन संघ से भारतीय जनता पार्टी और सांसद से देश के प्रधानमंत्री तक के सफ़र में अटल बिहारी वाजपेयी ने कई पड़ाव तय किए हैं.

नेहरु-गांधी परिवार के प्रधानमंत्रियों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी का नाम भारत के इतिहास में उन चुनिंदा नेताओँ में शामिल होगा जिन्होंने सिर्फ़ अपने नाम, व्यक्तित्व और करिश्मे के बूते पर सरकार बनाई.

पत्रकारिता

एक स्कूल टीचर के घर में पैदा हुए वाजपेयी के लिए शुरुआती सफ़र ज़रा भी आसान न था. 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के एक निम्न मध्यमवर्ग परिवार में जन्मे वाजपेयी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के ही विक्टोरिया ( अब लक्ष्मीबाई ) कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज में हुई.

उन्होंने राजनीतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर किया और पत्रकारिता में अपना करियर शुरु किया. उन्होंने राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन का संपादन किया.

जन संघ और बीजेपी

1951 में वो भारतीय जन संघ के संस्थापक सदस्य थे. अपनी कुशल वक्तृत्व शैली से राजनीति के शुरुआती दिनों में ही उन्होंने रंग जमा दिया. वैसे लखनऊ में एक लोकसभा उप चुनाव में वो हार गए थे. 1957 में जन संघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया. लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वो दूसरी लोकसभा में पहुंचे. अगले पाँच दशकों के उनके संसदीय करियर की यह शुरुआत थी.

1968 से 1973 तक वो भारतीय जन संघ के अध्यक्ष रहे. विपक्षी पार्टियों के अपने दूसरे साथियों की तरह उन्हें भी आपातकाल के दौरान जेल भेजा गया.

1977 में जनता पार्टी सरकार में उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया. इस दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया और वो इसे अपने जीवन का अब तक का सबसे सुखद क्षण बताते हैं. 1980 में वो बीजेपी के संस्थापक सदस्य रहे. 1980 से 1986 तक वो बीजेपी के अध्यक्ष रहे और इस दौरान वो बीजेपी संसदीय दल के नेता भी रहे.

सांसद से प्रधानमंत्री

अटल बिहारी वाजपेयी अब तक नौ बार लोकसभा के लिए चुने गए हैं. दूसरी लोकसभा से तेरहवीं लोकसभा तक. बीच में कुछ लोकसभाओं से उनकी अनुपस्थिति रही. ख़ासतौर से 1984 में जब वो ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के हाथों पराजित हो गए थे.

1962 से 1967 और 1986 में वो राज्यसभा के सदस्य भी रहे.

16 मई 1996 को वो पहली बार प्रधानमंत्री बने. लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 31 मई 1996 को उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा. इसके बाद 1998 तक वो लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे.

1998 के आमचुनावों में सहयोगी पार्टियों के साथ उन्होंने लोकसभा में अपने गठबंधन का बहुमत सिद्ध किया और इस तरह एक बार फिर प्रधानमंत्री बने. लेकिन एआईएडीएमके द्वारा गठबंधन से समर्थन वापस ले लेने के बाद उनकी सरकार गिर गई और एक बार फिर आम चुनाव हुए.

1999 में हुए चुनाव राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साझा घोषणापत्र पर लड़े गए और इन चुनावों में वाजपेयी के नेतृत्व को एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया. गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और वाजपेयी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली.

Sunday, December 11, 2011

चाय की दुकान पर सेंसर कैसे लगाएंगे?

प्रवक्ता खुद की जबान नहीं बोलते। वे अपने स्वामी की आवाज होते हैं या फिर लंबे समय तक आवाज नहीं रह पाते। इसी तरह, मंत्री भी अपने मुखिया के अप्रत्यक्ष अनुमोदन के बगैर नाटकीय या प्रबल नीतिगत बदलाव का प्रस्ताव नहीं रखते। यही सामान्य रीति है। वर्तमान में इंटरनेट पर संवाद के सबसे असरदार तंत्र, सोशल मीडिया पर प्रस्तावित सेंसरशिप के लिए कपिल सिब्बल अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। 

सेंसर आमतौर पर भ्रांतिग्रस्त सरकारों के लिए आखिरी प्रलोभन होता है, जो इस भ्रम के सहारे खुद को सांत्वना देना चाहती हैं कि उनकी गलतियां बेअसर और बेईमान शासन की बजाय बस मानहानि की कोशिशें हैं। बेशक, सेंसर के लिए बहाना हमेशा राष्ट्रहित ही होता है। आपातकाल के दौरान सरकार ने इन कानाफूसियों को हवा दी कि उसके सामने घुटने न टेकने वाले पत्रकारों को सीआईए ने खरीद लिया है। अब सोवियत संघ के साथ केजीबी भी दफ्न हो गई है और सीआईए कुछ-कुछ मित्रपक्ष जैसा हो गया है, ऐसी फुसलाहटें गई नहीं हैं। इन दिनों, जब आप पार्टी लीडरों की संतनुमा छवि ढहाने वाले कार्टूनों को मिटाना चाहते हैं, तो कारण बन जाती है सांप्रदायिकता। यह तनाव का माकूल पल है। भारतीय मीडिया शायद ही कभी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। जब यूरोप स्वतंत्रता के नाम पर इस्लाम के पैगंबर की अभद्र छवियां छापने में व्यस्त था, तब भारतीय मीडिया जानता था कि स्वतंत्रता, गैरजिम्मेदारी का बहाना नहीं है। 

दिल्ली के क्षणभंगुर शासक अगर अधिक बुद्धिमान नहीं, तो ज्यादा सयाने तो बन ही चुके हैं। वे सोचते हैं कि ‘सरोगेट सेंसरशिप’ के साथ एक बार में मीडिया की एक बांह मरोड़कर वे बच निकल सकते हैं- अक्सर सीधे कार्यकारी अधिकारी की बदौलत या अहंकार को बढ़ावा देने के ज्यादा स्वीकार्य समाधान या फिर बैंक बैलेंस में उदारता के जरिए। आलोचना को शांत करने के लिए व्यक्गित तौर पर पत्रकारों पर तहकीकात करने वाली संस्थाओं के माध्यम से दबाव डाला जाता है। मीडिया के मालिक अपनी गर्दन पर सत्ता-शक्ति का ठंडा हाथ महसूस करते हैं और कई बार पिछवाड़े पर चपत के रूप में ढके-छुपे ढंग से भी। यहां भरोसेमंद बने रहने के इनाम भी होते हैं, जो तुच्छ चीजों से लेकर भौतिक लाभों के रूप में मिलते हैं। हालांकि भुनाने के लिए जरूरी पुरस्कार पॉइंट बढ़ते ही जा रहे हैं। मीडिया मैनेजर और लिक्खाड़ यह जानते हैं। जो गर्मी में नहीं टिक पाते, वे रसोईघर से बाहर हो जाते हैं और सीधे चलकर राजनेताओं के ड्राइंगरूम के वातानुकूलित आराम में पहुंच जाते हैं। पत्रकार धर्म का निर्वाह करने वाले अन्य लोग असुविधा और कष्ट को लेकर न बखेड़ा खड़ा करते हैं न ही पलायन करते हैं। 

जब माहौल शांतिपूर्ण हो, तब भी मंत्री धौंस जमाने के आदी हो सकते हैं। और जब मौसम अशांत हो जाता है, तो वे युद्ध की मानसिकता में पहुंच जाते हैं। व्यापक तौर पर विदेशी भूमि पर लड़ा गया युद्ध हारने वाले एकमात्र अमेरिकी सेनापति विलियम वेस्टमोरलैंड ने यह सफाई देते हुए खुद को सांत्वना दी थी कि आधुनिक युग में वियतनाम युद्ध पहला युद्ध था, जो बगैर सेंसरशिप के लड़ा गया। उन्होंने वॉशिंगटन पोस्ट से कहा कि ‘सेंसरशिप के बगैर चीजें जनता के दिमाग में भयंकर भ्रम पैदा कर सकती हैं।’ यही बात शक्तिसंपन्न लोगों को सबसे ज्यादा चिंतित करती है कि लोग सच के जरिए ‘भ्रमित’ किए जा सकते हैं। वे तमाम बहस, सवाल और तर्कसंगत जिम्मेदारियों को मिटा देना चाहते हैं, क्योंकि कुर्सी के लिए उनके लालच की कोई सीमा नहीं होती। वे दूरदर्शन और आकाशवाणी की तरह अपने नियंत्रण वाले मीडिया की साफ-सफाई और काट-छांट करते हैं और इस तरह उसकी साख को पुंसत्वहीन कर डालते हैं। इसके बाद कैंचियां उस मीडिया के लिए सामने आती हैं, जिसे वे नियंत्रित नहीं करते। 

यदि इंटरनेट पर सेंसरशिप सांकेतिक से ज्यादा कुछ नहीं होती (मसलन सर्वर बंद करना), तो ऐसा पहले से ही हो चुका होता। हालांकि, किसी लोकतांत्रिक सरकार के पास मुअम्मर गद्दाफी, हफीज असद या चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ढकी-छुपी जबरदस्ती के जैसे निरंकुश अधिकार नहीं होते। कृत्रिम तर्क दिए ही गए होंगे। परंतु भारत सरकार को जल्दी ही पता चलेगा कि निजी संचार क्षेत्र के उसके कुछ सहयोगियों के मुकाबले इंटरनेट आसानी से नहीं झुकता। सोशल मीडिया का चमत्कार व्यक्तिगत आवाज और श्रोता जनसमूह के इसके अद्वितीय मेल में है। यह करोड़ों लोगों के बीच बातचीत है। आप चाय की दुकान पर सेंसर कैसे लगा सकते हैं। 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी विपक्ष को जेल में ठूंस सकीं और खाली जगह के जरिए मुखपृष्ठों पर छाप भी छोड़ सकीं, लेकिन वे चाय की हर दुकान पर ताला नहीं जड़ सकीं। सोशल मीडिया मानव इतिहास में चाय की सबसे बड़ी दुकान है। 

यहां पर महत्वपूर्ण प्रश्न बचा रह जाता है : सिब्बल तो प्रवक्ता हैं, मालिक कौन है? पता नहीं क्यों, पर डॉ. मनमोहन सिंह का नाम जवाब जैसा नहीं लगता। वे किसी इमोटीकॉन को नहीं पहचान पाएंगे। 

एक पैटर्न देखा जा सकता है। कांग्रेस अपनी सारी कोशिशें उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों पर केंद्रित कर रही है। कांग्रेस की किस्मत सुधारने के लिए गंभीर राजनीतिक निर्णय लिए जा रहे हैं। राहुल गांधी जानते हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन ने अपने सत्ता-विरोधी संदेश के प्रसार के लिए सोशल मीडिया का शानदार इस्तेमाल किया है। हजारे, प्रस्तावित लोकपाल कानून को कमजोर करने के लिए सार्वजनिक तौर पर राहुल गांधी को दोषी ठहरा चुके हैं। हजारे के मामले में सरकार कुछ नहीं कर सकती। क्या यह हजारे का संदेश ले जाने वाले इंटरनेट पर सेंसर लगाने की कोशिश कर रही है? 

यदि कपिल सिब्बल के विचार के पीछे यही तर्कसंगत वजह है, तो फिर यहां पर ब्रेकिंग न्यूज है। वास्तविकता में आइए। चाय की इस दुकान में कोई दीवार नहीं है। 

Thursday, December 8, 2011

संवेदना के पते पर आत्मीयता की पाती

नया बैंक खाता खुलवाने के लिए वोटर आईडी, मार्कशीट समेत अन्य दस्तावेज तलाश रहा था, तभी अचानक एक काफी पुराने कागज पर नजर पड़ी। गौर से देखा तो पाया करीब बीस बरस पुरानी एक चि_ी है, जो मौसी ने भेजी थी। पढ़ते-पढ़ते पुरानी यादों में खो गया। 

बात बाईस बरस पुरानी है। पिताजी नौकरी की तलाश में मंडीदीप चले आए थे। मम्मी और छोटा भाई भी उनके साथ ही आ गए थे। मैं दादा-दादी के साथ गांव में ही रह गया था। सालभर बाद मैं भी मंडीदीप आ गया। मेरी मौसी मुझे यहां लाई थीं। तब मैं चौथी क्लास में पढ़ता था। गांव से यहां आने के बाद दादाजी और अन्य रिश्तेदारों का हाल-चाल जानने, कुशलक्षेम पूछने का एक ही जरिया होता था - चि_ी। 

मोबाइल तो तब होते नहीं थे, टेलीफोन भी आम नहीं थे। मां बोलतीं और मैं बड़े ध्यान से चि_ी लिखता था, ताकि कोई गलती न हो जाए। चि_ी लिखने का एक खास तरीका होता था। जैसे सबसे पहले बड़ों को चरण स्पर्श, प्रणाम, फिर ‘आगे हाल मालूम होवै’ जैसे जुमलों से अपनी बात कहना, अपने हाल बताना, फिर उनके हाल जानना। अंत में छोटों को ढेर सारा प्यार लिखना होता था। चि_ी लिखने में भी कोई कम समय नहीं लगता था, पूरे दो घंटे चाहिए होते थे। लिखने के बाद लाल डिब्बे में डालने के साथ ही शुरू हो जाता था डाकिये का बेसब्री से इंतजार। खाकी वर्दी में सजा-धजा डाकिया, पोस्टमैन बाबू, डाक वाले भैया... जाने कितने नाम, पर काम सिर्फ एक पैगाम पहुंचाना, संदेश देना। घर के बाहर जब भी साइकिल की घंटी की ट्रिन-ट्रिन सुनाई दे या दरवाजे की कुंडी बजे, यही लगता कि चि_ी आ गई। सच पूछा जाए तो डाकिया बाबू के भी बड़े भाव हुआ करते थे, क्योंकि सुख-दुख की खबरों के खजाने की चाबी उसी के तो पास हुआ करती थी। जब कभी चीठी  आ जाए और डाकिया नाम लेकर कहे कि फलां बाबू, तुम्हारी चि_ी आई है तो हम मारे खुशी के आसमान सिर पर उठा लिया करते थे। एक खुशी चि_ी मिलने की और दूसरी डाकिया बाबू द्वारा नाम लेकर बुलाने की।चीठी को कमीज की जेब में रखकर हम कुछ इस तरह अकड़कर चलते मानो पूरे मोहल्ले में सिर्फ हमारी हीचीठी आई हो। घर जाकर बड़ी उत्सुकता से चि_ी खोलकर देखते कि किसने क्या लिखा है। सबसे पहले तो यही पढ़ते किचीठी में हमारे बारे में क्या लिखा गया है। जब भी कोई चीठी आती, उसे कई दिनों तक बड़ी हिफाजत से संभालकर रखते थे। 

यह सब सोच ही रहा था कि मम्मी ने आकर टोका : इस पुराने कागज को पढ़ते-पढ़ते कहां खो गए हो? मम्मी को बताया मौसी की पुरानी चि_ी है। पढ़कर लगता है समय कैसे तेजी से पंख लगाकर उड़ जाता है। कल तक जिस डाकिया बाबू की खूब पूछपरख और आवभगत हुआ करती थी, उसे आज कोई पूछने वाला भी नहीं बचा। कोई चि_ी भी नहीं लिखता। संचार क्रांति के साधनों ने चि_ी और डाकिये को गुजरे जमाने की चीज बना दिया। उन साधनों को प्रणाम, जिन्होंने दुनिया को समेटकर एक वैश्विक समुदाय बना दिया है, किंतु चि_ियों में जो निजता का संस्पर्श होता था, आत्मीयता की जो भीनी गंध होती थी, और जो एक विशिष्ट देशज स्थानिकता होती थी, उसकी तुलना इनसे नहीं की जा सकती। अतीत का एक मोह होता है और अतीत का रोमान भी होता है। यह ऐतिहासिक प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है कि समय के साथ कुछ चीजें हाशिये पर चली जाती हैं और कुछ चीजें केंद्रीयता ग्रहण कर लेती हैं। लेकिन चि_ियों जैसी अब लगभग भूली-बिसरी हो चुकी चीजों को याद करने का एक अर्थ यह भी है कि हम अपने भीतर की संवेदनशीलता की नमी को जुगाए और बचाए रखें। चि_ियों की याद हमारी संवेदना के पते पर एक आत्मीय पाती है। 

कोलावेरी हिंसा का चढ़ता ग्राफ

यूट्यूब की कृपा से इन दिनों एक गाना तमाम लोगों, खासकर युवाओं की जुबां पर चढ़ा हुआ है, ‘व्हाय दिस कोलावेरी डी?’ सुनते हैं टूटी-फूटी तमिल मिश्रित अंग्रेजी का यह गाना प्यार में निराश शराब के नशे में बहकते आम युवा की पुकार है, जो प्रेमिका से पूछ रहा है : इतना गुस्सा क्यों? अभागा नशेड़ी प्रेमी रालेगणसिद्धी जाकर यह गाता तो शायद उसे खंभे से बांधकर पीटा जाता और हरियाणा में प्रेम का सरेआम इजहार उसे खाप पंचायतों के गुस्सैल मंच पर ला खड़ा करता, क्योंकि जहां तक गुस्से की बात है, वह भारत में रूठे प्रेमियों तक ही सीमित नहीं, तमाम आयु और आय वर्गों की नाक की नोंक पर भी रखा रहता है। मुद्दा कोई भी हो, तकरार हुई नहीं कि मारपीट शुरू हो जाती है। नाराज नागरिक नेताओं पर जूते-चप्पल फेंकने या थप्पड़ मारने पर उतारू दिखते हैं तो सड़कों पर हर कहीं से ‘रोड रेज’ की खबरें मिल रही हैं। खबरें ही नहीं, सरकारी आंकड़े भी बयां रहे हैं कि हर कहीं ‘कोलावेरी हिंसा’ का चढ़ता ग्राफ लोगों को हल्ला बोल मुद्रा में ला रहा है। निरीह औरतों, बच्चों तथा बूढ़ों के खिलाफ तो विशेष तौर से, जो पलटवार करने में असमर्थ हैं। 

नागरिकों के गुस्से पर ठंडे छींटे डालने और तटस्थता और शांति की अपील करने की उम्मीद हम किससे करें? पहले सहज जवाब होता था, गांधीवादियों या घट-घटव्यापी मीडिया से, पर इन दिनों गांधीवाद के उपासक भी नापसंद व्यवस्था के प्रतिनिधियों के खिलाफ गुस्से और मारपीट को सही ठहराने लगे हैं और मीडिया इन हिंसक छवियों और बयानों को दिनभर भुनाता हुआ हिंसा करने वालों को राज-समाज में एक तरह की सांस्कृतिक स्वीकृति और शोहरत दिला रहा है। लगता है यह लगभग मान लिया गया है कि आज जो कुछ व्यवस्था सम्मत है, वह कुचलने लायक है और उसके खिलाफ हिंसक तोडफ़ोड़ निंदनीय हरकत नहीं, जनता का लोकतांत्रिक हक और सराहनीय तेवर है। दरअसल अक्रोध और अहिंसा के विचार उतने इकहरे नहीं हैं, जितना गांधी के शब्दों को एक किस्म का धार्मिक दर्जा दे चुकेलोग मान बैठे हैं। उनका सतही गांधीवाद कुछ-कुछ परशुराम की धर्म की समझ सरीखा है, जिसके तहत पिता की आज्ञा होते ही बिना जवाबदेही का इंतजार किए फरसा उठाकर बेबुनियाद शक की शिकार मां का सिर काट लाना आदर्श वारिस होना है। 

एक वरिष्ठ और बीमार नेता पर हमले की खबर सुनकर भरी सभा में हमारे एक आदरणीय गांधीवादी की प्रतिक्रिया थी : सिर्फ एक ही थप्पड़? और अंधभक्त श्रोता ठठाकर हंस पड़े। क्या ऐसी गैरजिम्मेदाराना फब्ती कसने वाले सिंगुर के किसानों के खिलाफ मारपीट की पैरोकारी करने या बाबरी गिरने पर हर्ष जताने वालों से बहुत फर्क ठहरते हैं? इतिहास गवाह है कि अपने पक्ष को जिताने के लिए किसी भी ‘वाद’ की निजी व्याख्या करके (वह गांधीवाद हो, नक्सलवाद या माक्र्सवाद) उसे धर्म का दर्जा देकर फौरी जुनून पैदा कर देना बड़ा आसान है। लेकिन अंतत: यह खेल बहुत खतरनाक साबित होता है। नेता पर अंधभक्ति रखने वाले सामान्य बुद्धि के अनुयायियों के लिए कुछ विचार तो तर्क के परे एक अवध्य गाय बन जाते हैं और उनकी परिधि के बाहर का सबकुछ अपावन, क्षुद्र और ताडऩा का सहज अधिकारी है। इस तरह की इकहरी समझ और वैचारिक जिद ने ही महाभारत से लेकर कलिंग और बंगाल से लेकर भारत-पाक विभाजन तक उन भीषण गृहयुद्धों को पैदा किया है, जिन्होंने सभ्यता को शर्मसार किया है। उत्तेजना के क्षण बीतने पर उस पाशवी युद्ध का कोई गांधी या व्यास सरीखा द्रष्टा या युधिष्ठिर या अशोक सरीखा विजेता साफ कह उठता है कि ऐसी जीत अर्थहीन है और विनाशकारी युद्ध के पीछे सत्य-असत्य का टकराव नहीं, दो अहंवादी धड़ों की मान्यताओं की स्वार्थी टकराहट ही थी। अंत में जो हाथ लगा, वह है खंडहर, सर धुनते नागरिक और पछतावा। हर ईमानदार महानायक इसीलिए कथित विजय की घड़ी में खुशी मनाने के बजाय घोर आत्मघृणा में डूब जाता है। 

पूछा जा सकता है कि तब क्या वजह है कि औपचारिक इतिहास और नेता खमठोंक युद्ध छेडऩे वालों के नाम पर फूल फेंकने में इतनी रुचि लेते हैं? पहली वजह यह कि इतिहास लेखन अक्सर राजकीय रुचि से होता आया है और इसलिए वह युद्ध को जायज ठहराता है। दूसरे, लोगबाग अक्सर कटु सच्चाई की अपेक्षा मनोरंजक अर्धसत्य अधिक पसंद करते हैं, लिहाजा टीकाकार हों या मीडिया या पदलोलुप नेता, सभी अधिकतर नाटकीय उत्तेजना से भरपूर विवरणों को ही केंद्र में रखकर अपने भाषणों और ग्रंथों को लोकप्रिय बनाते हैं। सच्ची नैतिक दुविधा की बात करने वाले विदुर, गृहयुद्ध के विरोध में वन चले गए बलराम और सच्चे पछतावे से मथे जाने पर खुद को दोषी कहकर वैराग्य धारण करने वाले सत्यवादी युधिष्ठिर के बजाय आम लोग धनुर्धारी अर्जुन, उग्रतेजा कर्ण, गदाधारी भीम और जुझारू द्रोण के उग्र विद्रोह और गुस्से को अधिक सराहना भाव से याद रखते हैं। हमारे नेतागण कुछ देर को अपनी बात मनवाने और चुनावी आग्रहों से मुक्त होकर तटस्थता से महाभारत का अंत पढें़ तो शायद वह उनको कई बातें नई तरह से सोचने को विवश करे। 

युद्ध के बाद जीता हुआ राज्य त्यागकर पांडवों का वैराग्य धारण करना और मृत भाइयों का तर्पण करने के बाद हिमालय को प्रस्थान करना कोई यूनानी तर्ज की त्रासदी नहीं, वह अपनी अमर्यादित हिंसक कथनी और करनी पर शर्म और भाइयों के खून से भीगी धरती पर राज करने की गहरी अनिच्छा अनुभव करने की ईमानदार घड़ी है, जिससे गुजरना कालातीत मर्यादाओं का महत्व व क्रोध (अमर्ष भाव) की निस्सारता पहचानना है। वेदव्यास और कृष्ण शाश्वत मूल्यों को लेकर शांत प्रकृति युधिष्ठिर को सदैव उनके गुस्सैल भाइयों से ऊपर मानते हैं। इसीलिए यक्षप्रश्नों की झड़ी लगाकर धर्म युधिष्ठिर से जीवन का केंद्रीय सत्य कहलवाता है और उचितानुचित विचार कर तटस्थता से महाभारत को देखने-समझाने लायक प्रायदृष्टि का वर भी कृष्ण अपने परम सखा अर्जुन को नहीं, अक्रोधी युधिष्ठिर को ही देते हैं।

Sunday, November 27, 2011

पैरी हाई डेम के सर्वे से खलबली

 गरियाबंद के लोग भविष्य को लेकर चिंतित 
वर्षों बाद पैरी हाई डेम के सर्वे होने की खबर से लोगों में खलबली मच गई है। फिर से यहां की बसी बसाई दुनिया को उजाडऩे की योजना से क्षेत्र के लोगों में चिंता व्याप्त है। हमेशा हाई डेम की तलवार क्षेत्र में लटकती रहती है। सर्वे को लेकर क्षेत्र की जनता चिंतित है। अब तक विरोध के चलते डेम को लेकर शासन-प्रशासन ने इसे बनाने हिम्मत नहीं दिखाई है। यह तो तय है कि इस बार भी जबरदस्त विरोध होगा। क्योंकि आस पास के गांव जब डूब में आ जाएंगें तो गरियाबंद का अस्तित्व नहीं रहेगा। वैसे लोग अब अपने भविष्य को लेकर चिंतित है। 

1 जनवरी 2012 को गरियाबंद जिला बन जाएगा, ऐसे में जिला मुख्यालय का स्थान डेम बनने की स्थिति में टापू से कम नहीं रहेगा। जिले के स्थाई दफ्तर मालगांव पहाड़ी को प्रशासन ने फाइनल कर दिया है। एक तरफ जिले की सौगात है तो दूसरी तरफ हाई डेम के सर्वे की चर्चा गांवों में शुरू हो गई है। तेजी से सर्वे होने का हल्ला शनिवार को नगर सहित गांवों में पहुंचा।ग्रामीणों का स्पष्ट मत है कि किसी भी शर्त में हाई डेम नहीं बनने देंगे। उल्लेखनीय है कि हाई डेम बनने का विरोध कई बार किया गया। शनिवार को नगर के युवकों के जत्थे ने सर्वे के विरोध में रैली निकाली व राज्यपाल के नाम ज्ञापन प्रशासन को सौंपा। इस मौके पर ओम राठौर, संदीप सरकार, केशु सिन्हा, सन्नी मेमन, ओमप्रकाश सिन्हा,भुवन बघेल, सोवल जानसन, गौरव कुटारे, यशपाल देवांगन, दीपक तिवारी, सहित अनेक लोग मौजूद थे। आंदोलन के लिए ग्रामीण लामबंद हो रहे है। वैसे संघर्ष समिति पूर्व से गठित है। बताया जाता है कि रविवार को इसको लेकर बैठक रखी गई है। इसके बाद खुलासा हो पाएगा कि विरोध की रणनीति क्या होगी। क्षेत्र के लोगों में जिला बनने की खुशी है वहीं हाई डेम बनने के सर्वे का मामला सामने आते ही नाराजगी देखी जा रही है। गौरतलब है कि पैरी हाई डेम ब्रिटिश काल 1932 की योजना है। विश्व बैंक की मदद से पैरी नदी में बारूका के पास प्रस्तावित किया गया था। 

हाई डेम के डूबान क्षेत्र: बारूका, मालगांव, बेहराबुड़ा, घुटकूनवापारा, पाथरमोहदा, सोहागपुर, कस, मजरकटा , भिलाई, सढ़ौली, खट्टी, आमदी, कुरूभांठा, चिखली,मुहेरा , क ोदोबतर, पटोरा, डुबान क्षेत्र चिह्नित किया गया है। 

आंशिक डूबान क्षेत्र: गरियाबंद ,भेजराडिही, कासरबाय, गजंईपुरी, कोचबॉय, कोकड़ी, पेंड्रा, जडज़ड़ा, झितरी डुमर, कोसमबुड़ा, तांवर बाहरा, मैनपुर, संबलपुर, खरहरी सरईभदर, भीरगुड़ी, आएंगे। 

सच्चाई जानने लोग पहुंचे: गरियाबंद से 14 किमी दूर राज्य मार्ग से एक किमी अंदर पैरी हाई डेम के प्रस्तावित स्थान को देखने शनिवार को ग्रामीण पहुंचे जहां पाया कि राज्यमार्ग से प्रस्तावित डेम स्थल तक मुरम से सड़क बना ली गई है। वहीं प्रस्तावित स्थल व सड़क में संकेत चिन्ह बनाए गए है। इससे लोगों को भरोसा हो गया है कि सर्वे डेम का शुरू होने वाला है। 

वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति नहीं: पैरी हाई डैम के बनाने को लेकर दूसरे क्षेत्र के राजनैतिक नेताओं में खासी दिलचस्पी है। लगातार मांग करते है कि डेम बनना चाहिए। वर्षों से यह बात ही सामने आती है कि केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से लाखों पेड़ होने के कारण अनुमति के लिए भेजी जाती है। कई बार तो अनुमति नहीं मिली है इस ताजा सर्वे होने के बाद फिर से केंद्र सरकार को अनुमति के लिए भेजा जाना तय है। अब देखना है कि इस मामले क ो लेकर राजनीतिक नेताओं का रूख क्या है। क्योंकि केंद्र में कांग्रेस व राज्य में भाजपा की सरकार है। 

Thursday, November 24, 2011

प्रस्तावित गरियाबंद जिले की प्रशासनिक स्थायी, अस्थायी दफ्तर की कार्ययोजना तैयार

प्रस्तावित गरियाबंद जिले की प्रशासनिक तैयारी तेजी से शुरू हो गई है। गुरुवार को यहां के ओएसडी दिलीप वासनीकर ने दायित्व मिलने के बाद पहली बार दौरा किया और अस्थायी व स्थायी दफ्तर लगाने को लेकर जगह का अवलोकन किया। उन्होंने मालगांव पहाड़ी की ऊंचाई में पहुंच इस बात की तस्दीक की कि पहाड़ी की जमीन बेहद ठोस है। इसके अलावा कालेज, आईटीआई भवन, वन काष्टागार, पारागांव, कृषि प्रक्षेत्र कें द्र का निरीक्षण कर इस बात की तलाश की कि कहां दफ्तर खुलना चाहिए । उन्होंने संकेत दिए कि अस्थायी व स्थायी दफ्तर को लेकर कार्य योजना बन गई है । जिसकी प्रस्तावित कार्यों की समीक्षा 26 नवम्बर को होगी । इसी लिए दौरे में आए है । 

इस अवलोकन के बाद खुलासा नहीं किया कि संभावित दफ्तर की जगह कौन सी होगी । वैसे अस्थायी कलेक्टर्स लगाने कॉलेज भवन को उपयुक्त समझा गया है । यहां के नागरिकों ने राज्य सरकार द्वारा नियुक्त ओएसडी के दौरे को लेकर सक्रियता नहीं दिखाई। श्री वासनीकर ने अचानक दौरा किया और यहां जगह को लेकर संभावना तलाशते रहे। इसके पूर्व कलेक्टर डॉ. रोहित यादव ने दौरा कर अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को भेजे जाने की खबर है । प्रशासनिक सूत्रों के हवाले से बताया जाता है कि मालगांव पहाड़ी को स्थाई जिला दफ्तर बनाने उपयुक्त जगह बताया गया है। इसको लेकर 26 नवम्बर को कमिश्नर रायपुर में बैठक लेंगे । मालगांव पहाड़ी में लगभग 120 एकड़ शासकीय भूमि है । एक माह के बाद एक जनवरी 2012 को गरियाबंद जिला अस्तित्व में आ जाएगा । राज्य शासन के निर्देश पर तैयारी को लेकर ओएसडी को नियुक्त किया गया है । श्री वासनीकर ने चर्चा में बताया कि जनता की सुविधा के लिए जिला बनाया जा रहा है । मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों कलेक्टरों की बैठक ली थी । जिसमें उन्होंने नए जिले के व्यवस्था को लेकर निर्देश जारी किए है जिसमें एक जनवरी के पूर्व दफ्तर की व्यवस्था व्यवस्थित करने कहा है । अफसरों के निवास का चयन भी जल्द कर लिया जाएगा । बताया कि अस्थाई व स्थाई जिले के दफ्तर को लेकर कार्य योजना बन गई है । जिसकी प्रस्तावित कार्यों की समीक्षा 26 नवम्बर को होगी । 

इसी लिए दौरे में आए है । उन्होंने कहा कि जिले के निर्माण से जनता की तकलीफ दूर होगी । स्वास्थ्य और शिक्षा की समस्या दूर करना प्रशासन की प्राथमिकता में शामिल है। उनके दौरे में अपर कलेक्टर जी.आर. चुरेंद्र, एसडीएम के आर ओगरे ,जलसंसाधन कार्यपालन यंत्री, दिनेश भगोरिया, एसडीओ आर सी मेश्राम, एस डीओपी ए.आर.बैरागी,एसडीओ पीडब्लुडी आर आर सूर्या,सीएमओ नगर पंचायत अश्वनी शर्मा ,तहसीलदार गायकवाड़ उपस्थित थे । 

Friday, November 18, 2011

जिला दफ्तर लगेगा कॉलेज में

प्रस्तावित गरियाबंद जिला के अस्थाई दफ्तर शासकीय वीर सुरेन्द्रसाय महाविद्यालय में लगाए जाने का निर्णय ले लिया गया है। स्थानीय प्रशासन के पास गुरुवार को इस आशय के आदेश पहुंच गए है। एसडीएम केआर ओगरे ने बताया कि कॉलेज में जिले का दफ्तर लगाने का फैसला हो चुका है। शासन ने इस आशय के आदेश जारी कर दिए है। बताया कि कॉलेज बालक हाई स्कूल में लगाया जाएगा। वहां दो शिफ्ट में हाईस्कूल व कॉलेज संचालित होगा।

उल्लेखनीय है कि जिला एक जनवरी 2012 को अस्तित्व में आ जाएगा। इसको लेकर राज्य शासन ने प्रशासनिक तैयारी शुरू कर दी है। गरियाबंद जिले के लिए ओ.एस.डी. दिलीप वासनीकर को दायित्व सौंपा गया है। बताया जाता है कि अस्थाई दफ्तर को लेकर इसी माह के भीतर प्रशासनिक तैयारी तेज होगी। सूत्रों के मुताबिक स्थाई दफ्तर को लेकर भी मालगांव पहाड़ी लगभग फाइनल हो गया है। राज्य शासन 9 जिले के सेटअप को लेकर गंभीर है। इसके पूर्व कलेक्टर रोहित यादव ने अस्थाई व स्थाई दफ्तर को लेकर यहां का दौरा किया था।

गरियाबंद में शासकीय भूमि उपलब्ध नहीं होने के कारण मालगांव पहाड़ी को स्थाई दफ्तर के लिए तलाश की थी। यहां लगभग 110 एकड़ शासकीय भूमि है। जहां जिले के सभी विभागों के दफ्तर लगाए जा सक ते है। गरियाबंद क्षेत्र की जनता की वर्षों पुरानी मांग जिला बनाने की पूर्ण हो गई है । पांच ब्लाक के छोटे जिले के निर्माण से क्षेत्र का तेजी से विकास होगा।

Monday, September 26, 2011

पंडित दीनदयाल उपाध्याय

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को ब्रज के पवित्र क्षेत्र मथुरा ज़िले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में हुआ था। दीनदयाल जी का जीवनकाल 25 सितंबर, 1916 से 11 फ़रवरी 1968 तक रहा। पंडित दीनदयाल उपाध्याय 1953 से 1968 तक भारतीय जनसंघ के नेता रहे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय मज़हब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का ज़िम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। दीनदयाल की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। दीनदयाल उपाध्याय की पुस्तक एकात्म मानववाद (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म) है जिसमें साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों की समालोचना की गई है। एकात्म मानववाद में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और स्रजित क़ानूनों के अनुरुप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है।[1]

जीवन परिचय

दीनदयाल के पिता का नाम 'भगवती प्रसाद उपाध्याय' था। इनकी माता का नाम 'रामप्यारी' था जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर बीतता था। उनके पिता कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम शिवदयाल रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने अपनी पत्नी व बच्चों को मायके भेज दिया। उस समय दीनदयाल नाके ना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया में स्टेशन मास्टर थे। मामा का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ खाते-खेलते बड़े हुए। वे दोनों ही रामप्यारी और दोनों बच्चों का ख़ास ध्यान रखते थे।
3 वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग हो गया। 8 अगस्त सन 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। सन 1934 में बीमारी के कारण दीनदयाल के भाई का देहान्त हो गया।[2]

दीनदयाल उपाध्याय
Deendayal Upadhyay

शिक्षा

गंगापुर में दीनदयाल के मामा राधारमण रहते थे। उनका परिवार उनके साथ ही था। गाँव में पढ़ाई का अच्छा प्रबन्ध नहीं था, इसलिए नाना चुन्नीलाल ने दीनदयाल और शिबु को पढ़ाई के लिए मामा के पास गंगापुर भेज दिया। गंगापुर में दीना की प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ हुआ। मामा राधारमण की भी आय कम और खर्चा अधिक था। उनके अपने बच्चों का खर्च और साथ में दीना और शिबु का रहन-सहन और पढ़ाई का खर्च करनी पड़ती थी।

शिक्षा में कठिनाई

सन 1926 के सितम्बर माह में नाना चुन्नीलाल के स्वर्गवास की दुखद सूचना मिली। दीना के मन पर गहरी चोट लगी। इस दुख से उभर भी नहीं पाए थे कि मामा राधारमण बीमार पड़ गए। वैद्यों ने बताया कि उन्हें टी.बी. की बीमारी हो गई है। उनका बचना कठिन है। वैद्यो ने औषधि देने से मना कर दिया। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए, यही समस्या थी। लखनऊ में उनके एक सम्बन्धी रहते थे। उनके पास से राधारमण का बुलावा आया। लखनऊ में इलाज की अच्छी व्यवस्था थी। किन्तु उन्हें वहाँ कौन ले जाए, यही समस्या थी। कहीं यह छूत की बीमारी किसी और को न लग जाए, इसी से सब उनके पास जाने से भी डरते थे। दीना बराबर मामा की सेवा में लगा रहता था। मामा के मना करने पर भी वह नहीं मानता था। मामा का लड़का बनवारीलाल भी दीना के साथ पढ़ता था, किन्तु अपने पिता के पास जाने में वह भी छूत की बीमारी से डरता था। दीना की आयु इस समय ग्यारह-बारह वर्ष की थी। वह अपने मामा को लखनऊ ले जाने के लिए तैयार हुआ। मामा ने बहुत मना किया। दीना नहीं माना। अन्त में मामा को दीना की बात माननी ही पड़ी। लखनऊ में मामा का उपचार आरम्भ हुआ। दीना ने डटकर मामा की सेवा की। उसकी परीक्षा भी पास आ रही थी। किन्तु उसे मामा की सेवा के अलावा और कोई ध्यान नहीं था। परीक्षा का ध्यान आते ही मामा ने दीना को गंगापुर भेज दिया। दीना पढ़ भी नहीं सका था। किन्तु होनहार बिरवान के होत चीकने पात वाली कहावत को उसने चरितार्थ कर दिया। दीना ने परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाकर प्रथम स्थान प्राप्त किया। यह सभी के लिए आश्चर्य और प्रसन्नता की बात थी।

दीनदयाल उपाध्याय
Deendayal Upadhyay
दीना को कोट गाँव जाना पड़ा। गंगापुर में आगे की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। कोट गाँव में उसने पाँचवीं कक्षा में प्रवेश लिया। वहाँ भी वह पढ़ाई में प्रथम ही रहता था। राजघर जाकर आठवीं और नवीं कक्षा पास की। दीना के पास पढ़ने के लिए पुस्तकें नहीं थीं। दीनदयाल के मामा का लड़का भी उसके साथ पढ़ता था। जब दीनदयाल सो जाता या पढ़ाई नहीं करता था। तब दीना उसकी पुस्तकों से पढ़ लेता था। अब दीना नवीं कक्षा में था। दीनदयाल को फिर भारी दुःख का सामना करना पड़ा। उसका छोटा भाई शिबु भी टाइफाइड होने से चल बसा। दीना को गहरा दुःख हुआ। दोनों भाइयों में बहुत अधिक प्यार था। नवीं कक्षा पास करने के बाद दीना राजघर से सीकर गया। वहाँ भी उसने अपने अध्यापकों पर अपनी बुद्धि, लगन और परिश्रम की धाक जमा दी। सभी उसे बहुत प्यार करते थे। हाईस्कूल की परीक्षा से कुछ माह पूर्व दीना बीमार पड़ गया। हाईस्कूल की परीक्षा आरम्भ हो गई। दीना ने अच्छी तरह अपने प्रश्नपत्र किए। दीनदयाल न केवल परीक्षा में प्रथम आया बल्कि कई विषयों में एक नया रिकार्ड भी बनाया। उसकी रेखागणित की उत्तर-पुस्तिका कितने ही वर्षों तक नमूने के रूप में रखी गई।

दीनदयाल उपाध्याय प्रतिमा
Deendayal Upadhyay Statue

पढ़ाई में प्रशंसा

दीनदयाल जी का प्रिय विषय गणित था। वह गणित में हमेशा अव्वल अंक प्राप्त करते थे। सीकर के महाराज को इस मेधावी छात्र के विषय में खबर मिली। उन्होंने एक दिन दीना को बुलाया। उन्होंने कहा, ‘'बेटा, तुमने बहुत ही अच्छे अंक प्राप्त किए हैं। बताओ, तुम्हें पारितोषिक के रूप में क्या चाहिए?' दीना ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया, 'केवल आपका आशीर्वाद।' महाराज उस उत्तर से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने दीना को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये और 10 रुपये प्रतिमाह विद्यार्थी-वेतन देकर आशीर्वाद दिया। इसके बाद दीनदयाल जी कॉलेज में पढ़ने के लिए पिलानी चले गए। वहाँ भी सभी अध्यापक उनके विनम्र स्वभाव, लगन और प्रखर बुद्धि से बड़े प्रभावित थे। पढ़ाई में पिछड़े छात्र दीनदयाल से पढ़ते थे और मार्गदर्शन पाते थे। दीनदयाल जी इन सबको बड़े प्यार से पढ़ाते और समझाते थे। ऐसे कई छात्र हर समय उन्हीं के पास बैठे रहते थे।

स्वर्ण पदक

सन 1937, इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी । इस परीक्षा में भी दीनदयाल जी ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। बिड़ला कॉलेज में इससे पूर्व किसी भी छात्र के इतने अंक नहीं आए थे। जब इस बात की सूचना घनश्याम दास बिड़ला तक पहुँची तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने दीनदयाल जी को एक स्वर्ण पदक प्रदान किया। उन्होंने दीनदयाल जी को अपनी संस्था में एक नौकरी देने की बात कही। दीनदयाल जी ने विनम्रता के साथ धन्यवाद देते हुए आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। बिड़ला जी इस उत्तर से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, 'आगे पढ़ना चाहते हो, बड़ी अच्छी बात है। हमारे यहाँ तुम्हारे लिए एक नौकरी हमेशा ख़ाली रहेगी। जब चाहो आ सकते हो।' धन्यवाद देकर दीनदयाल जी चले गए। बिड़ला जी ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की।

कॉलेज में प्रवेश

दीनदयाल जी को बी.ए. करना था। इसके लिए एस.डी. कॉलेज, कानपुर में प्रवेश लिया। मन लगाकर अध्ययन किया। छात्रावास में रहते थे। वहाँ उनका सम्पर्क श्री सुन्दरसिंह भण्डारी, बलवंत महासिंघे जैसे कई लोगों से हुआ। राजनीतिक चर्चाएँ काफ़ी-काफ़ी देर तक चलती थीं।
Blockquote-open.gif हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा Blockquote-close.gif
- पं. दीनदयाल उपाध्याय

यहाँ दीनदयाल में राष्ट्र की सेवा के बीज का स्फुरण हुआ। बलवंत महासिंघे के सम्पर्क के कारण दीनदयाल जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रमों में रुचि लेने लगे। इन सब व्यस्तताओं के बाद भी उन्होंने सन 1939 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की। पंडित जी एम.ए. करने के लिए आगरा चले गये। वे यहाँ पर श्री नानाजी देशमुख और श्री भाऊ जुगाडे के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। इसी बीच दीनदयाल जी की चचेरी बहन रमा देवी बीमार पड़ गयीं और वे इलाज कराने के लिए आगरा चली गयीं, जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी। दीनदयालजी इस घटना से बहुत उदास रहने लगे और एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सके। सीकर के महाराजा और श्री बिड़ला से मिलने वाली छात्रवृत्ति बन्द कर दी गई।[3]

राष्ट्र धर्म प्रकाशन

दीनदयाल ने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरुआत की। सन 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू - लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंड़ल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डॉ. मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में श्री गुरु जी से मदद मांगी।

राजनीतिक सम्मेलन

पंडित दीनदयाल जी ने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य इकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। पंडित दीनदयाल जी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डॉ. मुखर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को आयोजित पहले 'अखिल भारतीय सम्मेलन' की अध्यक्षता की। पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी।

दीनदयाल उपाध्याय प्रतिमा
Deendayal Upadhyay Statue

संघर्ष

पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपनी चाची के कहने पर धोती तथा कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मज़ाक में उन्हें 'पंडितजी' कहकर पुकारा - यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोग बाद के वर्षों में उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल किया करते थे। इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे। वे अपने चाचा की अनुमति लेकर 'बेसिक ट्रेनिंग' (बी.टी.) करने के लिए प्रयाग चले गए और प्रयाग में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना जारी रखा। बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) पूरी करने के बाद वे पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में जुट गए और प्रचारक के रूप में ज़िला लखीमपुर (उत्तर प्रदेश) चले गए। सन 1955 में दीनदयाल उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय प्रचारक बन गए।

दीनदयाल उपाध्याय
Deendayal Upadhyay

सर्वोच्च अध्यक्ष

पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आख़िर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयाल जी इस महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए। पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं। प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह ’पॉलिटिकल डायरी‘ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोडकर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।

देश सेवा

पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। दीनदयाल देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि 'हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं। प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह 'पॉलिटिकल डायरी‘ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोडकर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।

लेखन

पंडित जी ने बहुत कुछ लिखा है। जिनमें एकात्म मानववाद, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ का सिद्धांत और नीति, जीवन का ध्येय राष्ट्र जीवन की समस्यायें, राष्ट्रीय अनुभूति, कश्मीर, अखंड भारत, भारतीय राष्ट्रधारा का पुनः प्रवाह, भारतीय संविधान, इनको भी आज़ादी चाहिए, अमेरिकी अनाज, भारतीय अर्थनीति, विकास की एक दिशा, बेकारी समस्या और हल, टैक्स या लूट, विश्वासघात, द ट्रू प्लान्स, डिवैलुएशन ए, ग्रेटकाल आदि हैं। उनके लेखन का केवल एक ही लक्ष्य था भारत की विश्व पटल पर लगातार पुर्नप्रतिष्ठा और विश्व विजय।[4]

मृत्यु

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की हत्या सिर्फ़ 52 वर्ष की आयु में 11 फ़रवरी 1968 को मुग़लसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय हुई थी। उनका पार्थिव शरीर मुग़लसराय स्टेशन के वार्ड में पडा पाया गया। भारतीय राजनीतिक क्षितीज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया।

Sunday, August 28, 2011

लोकतंत्र के हृदय में

हमारे लोकतंत्र के हृदय में एक कैंसर घर कर गया है : हमारी निर्वाचन प्रणाली वैध कोषों की बजाय काले धन से चलती है। नेताओं के तहत आने वाले संस्थान यह जानते हैं और अपनी व्यवस्थाएं जमा लेते हैं। सीबीआई जब अपनी पसंद के मौसमी लक्ष्य तक पहुंचना चाहती है, तो बहुत उग्र और कठोर हो सकती है, लेकिन इसे दिल्ली की झुग्गी बस्तियों में प्रत्येक झोपड़ी से हर महीने डेढ़ सौ रुपए वसूलने वाले अपने उन साथी पुलिसियों पर लगाम कसने में कोई दिलचस्पी नहीं, जो यह पक्का करने के पैसे लेते हैं कि जलआपूर्ति में बाधा नहीं आएगी। गरीबों को माफ नहीं किया जाता, क्योंकि जाहिर है, वे अािर्थक तौर पर विपन्न हैं। आप जिधर भी निगाह डालें, नकद लेन-देन के बोटोक्स इंजेक्शन के कारण प्रशासन फूला हुआ नजर आएगा।

अकेला शख्स जो भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता है, अन्ना हजारे हैं। जैसा कि उन्होंने एक बार बड़े चटखारेदार अंदाज में इंगित किया था कि वे तो चुनाव लडऩे का खर्च ही नहीं उठा सकते।

यह बहस संकट की जड़, यानी चुनावी भ्रष्टाचार पर ध्यान केंद्रित किए बगैर समाधान सुझाने वाले अनगिनत प्रस्तावों के बीच डगमगा रही है। राजनीतिक जमात कारोबारियों, जजों, नौकरशाहों (जिला स्तर से नीचे) समेत उन तमाम लोगों के भ्रष्टाचार की जांच के लिए जुट गई है, जिनके बारे में आप सोच सकते हैं। लेकिन जब स्वयं के अवलोकन की बात आती है, तो इकट्ठा हुई जमात छितराने लगती है। निस्संदेह, यह ऐसे लोकपाल पर विमर्श नहीं करेगी, जिसके पास राजनीति में धन के प्रवाह की पड़ताल करने की ताकत हो।

बहाने तो यहां हमेशा मौजूद रहते हैं, विशेषकर निर्वाचन आयोग, जो कथित तौर पर सत्यनिष्ठा का संरक्षक है। यह उसी तरह है, जैसे कहा जाता है कि न्यायपालिका का अस्तित्व है। पुलिस और जज अपराध रोकने के लिए बनाए गए थे। अगर उन्होंने ऐसा किया होता, तो आज कोई बहस ही नहीं होती। निर्वाचन आयोग अपने इरादों में पूरी पारदर्शिता से गंभीर है, लेकिन चुनौतियां इसे अधिकार में मिली क्षमताओं से कहीं बढ़कर हैं। अगर आप इस बारे में हल्का सा अंदाजा ही चाहते हैं कि राजनीति में किस स्तर तक धन व्याप्त है, तो नेताओं के प्रकाशित बयानों को ही पढ़ लीजिए। आंध्रप्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष ने दावा किया है कि जगन रेड्डी से जुडऩे के लिए जिन विधायकों ने उनकी पार्टी छोड़ी, उनमें से हर को नकद 10 करोड़ रु. दिए गए हैं। इसे तथ्य की तरह मत देखिए। यदि नकदी ही वफादारी की अकेली गारंटी होती, तो कांग्रेस में इतनी क्षमता है कि हर विपक्षी पार्टी को खरीद ले। हां, यह दावा दर्शाता है कि किस श्रेणी की पेशकाश होती हैं।

मुझे उम्मीद है, किसी को भी इस बात पर भरोसा नहीं होगा कि चुनावी भ्रष्टाचार का उपचार राज्य द्वारा इसके लिए कोष बनाए जाने में निहित है। यह तो करदाताओं के धन को कभी तृप्त न होने वाले कुंड में भरते जाना होगा। यह बजटों को बढ़ाएगा, न कि उन्हें कम करेगा।

अन्ना हजारे के संकल्प और साहस ने कांग्रेस को अशक्त तो किया है, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन अस्थिर नहीं हुआ है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम के नेतृत्व में कांग्रेस के जवाबी हमले के तहत अन्ना को तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया, तब पता चला कि उसके ‘पीडि़त’ को लोहे को भी सोने में बदल देने वाली कीमियागरी आती है। कांग्रेसी व्याकुलता इस बात से मापी जा सकती है कि ताजा बहस में सबसे तेज शोर चिदंबरम की मौन ध्वनि का है। कांग्रेस को यह समझ पाने में हैरानी भरे कुछ पल लगे कि इस आंदोलन की पहुंच सतह पर हो रही ट्विटरी गतिविधियों से कहीं ज्यादा गहरी है। गरीब जानते हंै कि अन्ना हजारे उनमें से ही एक हैं, हालांकि उनके सहयोगी ऐसे हो भी सकते हैं और नहीं भी। उन्हें इस बात से लेना-देना नहीं कि उनके सलाहकार कौन हैं। वे उनके पीछे जुट चुके हैं और यही उनके लिए पर्याप्त है। अन्ना की निजी साख पर बट्टा लगाने की कोशिश के चलते कांग्रेस ने ज्यादा सहानुभूति खोई। परंतु, विसंगति है कि यह मतदाताओं पर अन्ना-असर का ही डर है, जो सत्तारूढ़ गठबंधन की सलामती सुनिश्चित कर रहा है। अत:, अन्ना सरकार को हिला भी रहे हैं और उसकी निरंतरता भी पक्की कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री को एक अलग सवाल का जवाब जरूर देना चाहिए : सरकार चलाने की क्षमता के बगैर वे कितने लंबे समय तक पद पर बने रह सकते हैं? वे अपना आखिरी चुनाव लड़ चुके हैं। वे चुनावी मजबूरियों और समझौतों से मुक्त हैं। यह अमेरिकी राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल की तरह है, जहां उसे पार्टी को तो दिमाग में रखना पड़ता है, लेकिन ज्यादा बड़े सम्मोहन, यानी पुन: चुनाव लडऩे की जरूरत जैसी कोई बात नहीं होती। इस सुअवसर का ज्यादातर हिस्सा खो दिया गया है। क्या बाकी बचा हिस्सा भी गंवा दिया जाएगा?

Wednesday, August 24, 2011

कचनाध्रुवा क्षेत्र की पहचान

प्राचीन गोड़ राजाओं की रियासत में होगी अब सत्ता की राजनीति

बिंद्रानवागढ़ रियासत के वीर सपूत कचनाध्रुवा को 1903 में बेहतर जमीदारी प्रथा लागू करने के लिए अंग्रेजों के शासनकाल में दिल्ली के लाल किले में एवार्ड से सम्मानित किया गया था। उस समय इस रियासत में 464 ग्राम हुआ करते थे।

पांडुका से लेकर देवभोग तक रियासत का क्षेत्र था। कचनाध्रुवा वीर सपूत का क्षेत्र जनवरी 2012 में नए जिले के रूप में छत्तीसगढ़ के मानचित्र में उभरकर सामने आ जाएगा। गोड़ राजाओं के रियासत में सियासत की राजनीति होगी। प्रस्तावित गरियाबंद नए जिले में राजिम सामान्य, बिंद्रानवागढ़ विधानसभा पड़ेगा। बिंद्रानवागढ़ के नाम से तो तहसील बना है।

उल्लेखनीय है कि कचनाध्रुवा वीर सपूत की महत्ता आज भी वर्षों से बरकरार है। आम लोग इन्हें पूजनीय मानते हैं। जगह-जगह कचनाध्रुवा देवालय के रूप में स्थापित किया गया है। मार्ग से आने-जाने वाले लोग ग्राम बारूका, छुरा मार्ग, नवागढ़, राजपड़ाव के पहले, ध्रुवागुड़ी मार्ग पर स्थित कचनाध्रुवा देवालय में श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। राजधानी मार्ग, छुरा मार्ग, देवभोग मार्ग पर पहाड़ी स्थान पर ही ये देवालय है। गरियाबंद से 12 किमी दूर राजधानी मार्ग के कचनाध्रुवा देवालय में बिजली तक पहुंच गई है। इस नए जिले में कचनाध्रुवा की महत्ता मौजूद रहेगी, बिंद्रानवागढ़ रियासत के कचनाध्रुवा राजा थे। इनके परिवार का फिंगेश्वर स्थित राजमहल शान कहलाएगा। कचनाध्रुवा वीर सपूत की कहानी यह है कि वर्षों तक सियासत की आज भी निशानी है। इनका बिलाई माता से प्रेम संबंध था, बिलाई माता के परिवार ने इसे स्वीकार नहीं करते हुए कचनाध्रुवा का वध कर दिया। इनका सिर और धड़ अलग कर दिया था, चूंकि पटवागढ़ उड़ीसा से कचनाध्रुवा राजा यहां आए थे। ये वहां वीर सैनिक कहलाते थे, इसलिए उड़ीसा के चांदाहड़ी सड़क मार्ग पर कचनाध्रुवा देवालय स्थापित है। वर्तमान गरियाबंद का तहसील दफ्तर, देवभोग, मैनपुर, नवागढ़, पोड़ में रजवाड़ा का मालखाना था, इसमें से कई मालखाना खंडहर में तब्दील हो गया है। बताया जाता है कि नवागढ़ के टीले में चिंड़ा लोगों के साथ सामान्य युद्ध तक हुआ था।

Friday, August 19, 2011

गरियाबंद राजस्व जिला

गरियाबंद राजस्व जिला बनने का सपना साकार हो गया है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने गरियाबंद को जिले की सौगात दे दी है। गरियाबंद के जिला बनने से जनता खुश हैं। चार माह बाद, एक जनवरी 2012 नए वर्ष में गरियाबंद के रूप में नया जिला बन जाएगा। इस पांच ब्लाक के जिले में विकास की बहुत संभावना है। आदिवासी व वनवासियों की उन्नति होगी। यहां के 80 प्रतिशत किसानों का भला होगा। पिछड़ी जनजाति कमार, भुंजिया, लोग विकास की मुख्य धारा से जुड़ेंगे। जिला बनाने की मांग लंबे समय से लंबित थी।
जिले में दो विधानसभा होंगी, राजिम व बिंद्रानवागढ़। वर्तमान में बिंद्रानवागढ़ से डमरूधर पुजारी (भाजपा) व राजिम से अमितेश शुक्ल (कांग्रेस) विधायक हैं। नक्सली चुनौती के बीच विकास का पड़ाव तय करना है। राजनीतिक माहौल भी बदलेगा। बुनियादी समस्याएं हल होंगी। यहां पुलिस जिला मुख्यालय के दफ्तर के अलावा जलसंसाधन, पीडब्लूडी का संभागीय दफ्तर पहले से है। यहां उदंती वनमंडल का कार्यालय है, पूर्व वनमंडल का रायपुर दफ्तर गरियाबंद आ जाएगा। यहां के लोगों को जिले के अफसरों से मिलने 90 किमी दूर नहीं जाना पड़ेगा।जिले की धरोहर मैनपुर, देवभोग के हीरा खदान, एलेक्जेंडर खदान माने जाएंगे। यहां के पायलीखंड, बेहराडीह, कोदोमाली, सेंडमुड़ा में कीमती पत्थर पाए जाते हैं। उदंती अभयारण्य के राजकीय पशु वनभैंसे की एक अलग पहचान होगी। पर्यपर्यटन विकास की संभावना बढ़ गई है। क्षेत्र में धार्मिक महत्व के भूतेश्वरनाथ मंदिर, राजिम कुंभ, जतमई मंदिर, रमईपाठ मंदिर, गरजईमंदिर, घटारानी मंदिर का और विकास होगा। सही मायने में अब अमीर धरती के गरीब लोग विकास के पथ पर आगे बढेंग़े। एक माह पहले विधायक डमरूधर पुजारी ने सीएम डा. सिंह से गरियाबंद को जिला बनाने की मांग की थी। माना जा रहा है कि उनकी मांग रंग लाई।

गरियाबंद जिला क्षेत्रफल की दृष्टि से बड़ा होगा, सड़क मार्ग की दृष्टि से जिले की लंबाई 175 किमी होगी। पहले देवभोग से रायपुर जिले की दूरी 250 किमी थी। इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अब क्षेत्र की जनता की समस्याओं का निपटारा जल्दी होगा। विकास से क्षेत्र की तस्वीर बदलेगी। वैसे तो राज्य निर्माण के पिछले 10 सालों में क्षेत्र का विकास हुआ है। भौगोलिक व प्रशासनिक ढांचे के हिसाब से गरियाबंद अनुविभाग की जनसंख्या 5 लाख से अधिक है। 20890 वर्ग किमी क्षेत्र फल में 5 तहसीलें राजिम, गरियाबंद, मैनपुर, देवभोग, छुरा हैं। इन्हें ब्लाक का दर्जा प्राप्त है। चार नगरपंचायत गरियाबंद, छुरा, फिंगेश्वर, राजिम हैं। इसके अलावा 435 ग्राम पंचायतें, 7 पुलिस थाना, 10 मुख्य चिकित्सालय, 90 बाध, 6 कालेज, अतिरिक्त जिला व सत्र न्यायालय, अपर कलेक्टर के पद की स्थापना हो चुकी है।
टन विकास की संभावना बढ़ गई है। क्षेत्र में धार्मिक महत्व के भूतेश्वरनाथ मंदिर, राजिम कुंभ, जतमई मंदिर, रमईपाठ मंदिर, गरजईमंदिर, घटारानी मंदिर का और विकास होगा। सही मायने में अब अमीर धरती के गरीब लोग विकास के पथ पर आगे बढेंग़े। एक माह पहले विधायक डमरूधर पुजारी ने सीएम डा. सिंह से गरियाबंद को जिला बनाने की मांग की थी। माना जा रहा है कि उनकी मांग रंग लाई।

गरियाबंद जिला क्षेत्रफल की दृष्टि से बड़ा होगा, सड़क मार्ग की दृष्टि से जिले की लंबाई 175 किमी होगी। पहले देवभोग से रायपुर जिले की दूरी 250 किमी थी। इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अब क्षेत्र की जनता की समस्याओं का निपटारा जल्दी होगा। विकास से क्षेत्र की तस्वीर बदलेगी। वैसे तो राज्य निर्माण के पिछले 10 सालों में क्षेत्र का विकास हुआ है। भौगोलिक व प्रशासनिक ढांचे के हिसाब से गरियाबंद अनुविभाग की जनसंख्या 5 लाख से अधिक है। 20890 वर्ग किमी क्षेत्र फल में 5 तहसीलें राजिम, गरियाबंद, मैनपुर, देवभोग, छुरा हैं। इन्हें ब्लाक का दर्जा प्राप्त है। चार नगरपंचायत गरियाबंद, छुरा, फिंगेश्वर, राजिम हैं। इसके अलावा 435 ग्राम पंचायतें, 7 पुलिस थाना, 10 मुख्य चिकित्सालय, 90 बाध, 6 कालेज, अतिरिक्त जिला व सत्र न्यायालय, अपर कलेक्टर के पद की स्थापना हो चुकी है।

Friday, June 24, 2011

चराई पर प्रतिबंध के बाद भी राजस्थान से भेड़ के जत्थे गरियाबंद पहुंचते हैं।

वन क्षेत्रों में चराई पर प्रतिबंध के बावजूद राजस्थान से आकर पाण्डुका रेंज में भेड़ की चराई करने वालों को पकडऩे वन विभाग ने अभियान छेड़ दिया है। बुधवार को वन विभाग ने तौरेंगा व खरखरा के जंगल में भेड़, ऊंट, घोड़ा, बकरी सहित 917 मवेशी को पकड़ा। इनके मालिकों के खिलाफ गुरुवार को डीएफओ पूर्व वन मंडल अनिल सोनी के निर्देश पर वन परिक्षेत्र अधिकारी हरीश पांडेय ने एक लाख रुपए का जुर्माना किया है। विभाग ने चेतावनी दी है कि अगर फिर से वन क्षेत्र में नजर आए तो कड़ी कार्रवाई की जाएगी।प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रकृति व वनोत्पादन को नुकसान पहुंचाने के आरोप में भारतीय वन अधिनियम की धार 26 के अंतर्गत राजस्थान के मवेशी मालिक राणा वहद प्रताप, विश्राम सिंह, राजसिंह ग्राम मटियाना के विरुद्ध वन विभाग ने कार्रवाई की है। उनके पास से 550 भेड़, 349 बकरी, 6 घोड़ा तथा 12 ऊंट की जब्ती बनाई गई है। उनके खिलाफ 8 प्रकरण बनाए गए हैं। यहां चराई पर प्रतिबंध के बाद भी राजस्थान से भेड़ के जत्थे यहां पहुंच जाते हैं। चराई से जंगल नष्ट होते हैं, वहीं इनसे यहां के पशुओं को खुरहा, चपका की बीमारी फैलती है।

बताया जाता है कि भेड़ जहां चराई करते गुजरते है वहां छोटे पौधे विकसित नहीं हो पाते हैं। जिससे चारे की समस्या खड़ी हो जाती है। वन अमले ने अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई जुर्माना वसूलने की है। रेंजर श्री पांडेय ने बताया कि भेड़ मालिकों ने जुर्माना राशि जमाकर दी है। इन्हें भेड़-बकरी सहित वन इलाके से बाहर खदेड़ दिया गया है।

पहाड़ी में डेरा : बीते 20 वर्षों से राजस्थान से भेड़ चरवाहे यहां आ रहे हैं। ये वन विभाग से बचकर पहाड़ी पर भेड़ का डेरा लगाते हैं। ताकि हरे-भरे चारे की दिक्कत न हो। अनेक बार इनके खिलाफ कार्रवाई की गई है। इसके बाद भी भेड़ चराई के लिए लाने से बाज नहीं आते है। विशेष बात यह है कि इसके मालिक राजस्थान में बैठे रहते हैं और चरवाहे के साथ भेड़ चराई करने भेज देते हैं।

जंगल में घुसने के पहले रोका :बुधवार को वन विभाग को जानकारी मिली कि भेड़ों का जत्था वन क्षेत्र में प्रवेश कर रहा है। वन अफसरों ने स्टाफ समेत उन्हें घेरा और जंगल में जाने से रोक दिया। यह जानकार ताज्जुब होगा की एक बार इनका प्रवेश हो गया तो ठिकाने बनाकर वर्षों तक डेरा रहता है। ये राजस्थान लौटकर वापस नहीं जाते। बल्कि भेड़ के बाल वर्ष में दो बार काटकर राजस्थान भेजते हैं। इसके बाद बाल ही लाखों रुपए में बिकते हैं। ये भेड़ चरवाहे गरियाबंद नगर के व्यापारिक क्षेत्र से भोजन सामग्री खरीदते हैं।

भेड़ चरवाहे सक्रिय : पूर्व वनमंडल के अलावा उदंती वनमंडल के घने जंगलों में इनके दर्जनों ठिकाने हैं। विभाग के सामने कार्रवाई की चुनौती है। दोनों वनमंडल एरिया में प्रवेश करने के अनेक रास्ते हैं गोना, गरीबा में भेड़ चरवाहे का डेरा होने की खबर है।