Thursday, March 22, 2012

आंकड़ों में मिटी गरीबी

गरीबी की वास्तविक रूपरेखा और विस्तार को लेकर अंग्रेजी राज के जमाने से ही लगातार अर्धसत्?य पेश किया जाता रहा है। आजादी के बाद सरकारों से उम्मीद थी कि कम से कम अब गरीबों के सच को सामने रखकर नीतियों का निर्माण करेंगी और गरीबों की हिस्?सेदारी और हक के प्रति न्?याय का भाव रखेंगी। लेकिन 21वीं सदी के पहले दशक में भी सरकार के नवीनतम अनुमान और मापदंडों से हर समझदार आदमी चकरा जाएगा। आज जब यह कहा जा रहा है कि शहरों में 28 रुपए और गांव में 22 रुपए प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी की रेखा से ऊपर मानें, तो देश चौंक गया है। 

अभी कुछ हफ्ते पहले इसी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामे में कहा था कि 32 रुपए और 26 रुपए की कमाई करने वाले क्रमश: शहरी और ग्रामीण लोगों को हम गरीबी की रेखा से ऊपर मानें तो बेहतर होगा। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जोड़ी रथ और दांडेकर ने यह पैमाना प्रस्तुत किया था कि हम आमदनी की बजाय अगर उनके लिए जरूरी भोजन में कैलोरी की खपत के मापदंड को इस्?तेमाल करें तो बेहतर होगा क्योंकि वस्तुओं की लागत और कीमत घटती-बढ़ती रहती है। 

रथ और दांडेकर के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में 2100 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में 2400 कैलोरी आहार पाने वाले व्यक्ति को हम गरीबी की रेखा से ऊपर मानेंगे तो बेहतर होगा। लेकिन आज यह देखा जा रहा है कि गरीबी के आंकड़ों को लेकर कें?द्र सरकार उन राज्?यों से भेदभाव करने की कोशिश करती है, जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं। केंद्र के अनुदान की मात्रा का घटना-बढऩा इस गरीबी की रेखा से उत्पन्न आंकड़ों पर निर्भर करता है। 

आखिर हम क्या कर रहे हैं। सरकार अगर समाज के सामने सच बोले तो कड़वा से कड़वा सच स्?वीकार करने को भी समाज तैयार होता है। लेकिन अगर सरकार की तरफ से पवित्र भाव से भी अर्धसत्?य बोला जाए तो उसकी स्थिति युधिष्ठिर जैसी होगी। इसी समाज ने युधिष्ठिर जैसे सत्यनिष्ठ व्यक्ति और शासक को उसके अर्धसत्य की वजह से माफ नहीं किया था। 

वस्?तुत: आज देश में गरीबी को लेकर पांच तरह के अनुमान चल रहे हैं। योजना आयोग ने ही दो अनुमान दिए हैं, जिनके अनुसार 21.8 प्रतिशत और 27.5 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। जबकि इसी सरकार की बनाई अर्जुन सेनगुप्?ता समिति ने यह सिद्ध किया कि 78 प्रतिशत लोगों की क्रय शक्ति 20 रुपए से भी कम है। विश्व बैंक ने कहा है कि भारत में उदारीकरण के 20 साल के बावजूद अभी भी कोई 42 प्रतिशत लोग अत्यंत निर्धन हैं जबकि सुरेश तेंडुलकर कमेटी ने इसे 37 प्रतिशत बताया। 

आंकड़ों का उलटफेर यह दिखाने के लिए है कि सरकार जिस रास्?ते पर चल रही है, उससे गरीबी घट रही है। लेकिन सरकार के इन आंकड़ों पर संदेह करने के वाजिब वजहें हैं कि देश में पिछले 5-7 वर्षों में 8 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गए। अगर ऐसा होता तो सबको दिखाई पड़ता। हां, इतना तो दिखाई पड़ा है कि लगभग 50 लाख लोग बिहार में गरीबी की रेखा के नीचे और चले गए। यह भी दिखाई पड़ रहा है कि उन सभी इलाकों में गरीबी फैल रही है जिसे लाल पट्टी कहा जा रहा है। आंध्र प्रदेश के तटीय गांवों से लेकर भारत-नेपाल सीमा के ग्रामीणों के बीच गरीबी का विस्?तार हो रहा है। गरीबी घटने से माओवाद का असर जरूर घट जाता। 

आज जब गरीबी के सवाल चौतरफा उठ रहे हैं, योजना आयोग का यह दावा हास्यास्पद है कि मौजूदा आर्थिक नीतियों के कारण गरीबी घटी है। ये दावे आज ही नहीं हो रहे हैं। इंदिरा गांधी के जमाने में भी बैंकों के राष्?ट्रीयकरण के जरिए गरीबी हटाने के दावे किए गए। बैंक कर्ज दे रहे थे, लेकिन वह बिचौलियों की जेबों में जा रहा था। परिणामस्वरूप गरीबी हटने की बजाय भ्रष्टाचार के खिलाफ 1974-75 में गुजरात से लेकर बिहार तक सरकार को जन विस्फोट का सामना करना पड़ा। ये आंकड़ेबाजियां महज छलावा के लिए हैं। 

तटस्थ अर्थशास्त्रियों के मुताबिक 15 वर्षों में प्रतिदिन 2400 कैलोरी से कम आहार लेने वालों की ग्रामीण भारत में तादाद 74 प्रतिशत से बढ़कर 2004-05 में ही 87 प्रतिशत हो गई थी। ये आंकड़े बच्?चों व महिलाओं में कुपोषण की भी कहानी कहते हैं जिस पर प्रधानमंत्री को भी कहना पड़ा कि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा कुपोषणग्रस्त लोगों का राष्?ट्र हो गया है। 

यही स्थिति बुनियादी सुविधाओं की है। 40 प्रतिशत से अधिक लोगों के घरों में पीने का पानी या पक्की छत नहीं है। यह भी देखें कि इस बीच पिछड़े तबकों के लिए रोजगार के अवसर घटे हैं वरना मनरेगा के न्यूनतम मजदूरी वाले कामों में इतनी तादाद में लोग नहीं जुट जाते। 

यह रोजगारविहीन वृद्धि का जमाना है, और कृषि में निवेश घटा ै, फिर कहां से गरीबी के खिलाफ लोगों के पास अवसर और साधन आ रहे हैं। आज अगर इसका क्षेत्रीय विस्?तार देखें तो यह जानकर ताज्?जुब होना ही चाहिए कि जिस पूर्वोत्तर प्रदेशों के परिवार को पिछले 15 वर्ष से हर प्रधानमंत्री कोई न कोई पैकेज देता रहा है, उसी प्रदेश में गरीबी के पांव और गहरे जा धंसे हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में निर्धन भारत के एक-तिहाई से अधिक लोग रहते हैं। नए राज्यों में उत्तराखंड को छोड़कर झारखंड और छत्तीसगढ़ की खबर अच्छी नहीं है। 

योजना आयोग में बैठे विशेषज्ञों के दल की यह सनद बस एक ही काम कर सकती है कि कई राज्?यों में गरीबी मिटाने के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों और केंद्र से जाने वाले अनुदान को तत्?काल बंद कर दिया जाए। महंगाई बढ़ाने के लिए 45 हजार करोड़ रुपए के नए टैक्?सों की योजना भी लागू की जानी है। इसके अलावा गरीबी के बारे में देश में एक धुंध फैलाई जाएगी। 

मैं समझता हूं यह पाखंड का व्याकरण है। इससे गरीब अपने को अपमानित और छला हुआ महसूस करेगा। अगर गरीब का गुस्?सा सीधे सरकार को निशाने में लेगा तो हमारे लिए यह शिकायत करने की गुंजाइश नहीं रह जाएगी कि वंचित भारत संविधान की कद्र क्?यों नहीं करता, चुनाव से पैदा सरकारों का अनुशासन क्?यों नहीं मानता, और सरकार पर भरोसा क्यों नहीं रखता?